बिहार के नालंदा जिले में बिहारशरीफ कोर्ट ने शुक्रवार को चोरी करने के आरोप में पकड़े गए एक 16 वर्षीय किशोर के बचाव में आते हुए स्थानीय पुलिस को उसे रिहा करने और उसे लॉकडाउन के बीच भोजन और कपड़े देने का आदेश दिया। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, यह निर्देश न्यायिक अधिकारी मानवेंद्र मिश्रा ने दिया, जिन्होंने नोट किया कि लॉकडाउन के दौरान अपने भूखे परिवार को सहारा देने के लिए लड़का चोरी करने के लिए मजबूर हुआ था। लड़के ने अदालत को बताया कि वह असंगठित क्षेत्र में काम करता है। हालांकि, लॉकडाउन के कारण, वह अपनी मानसिक रूप से अस्वस्थ विधवा माँ और छोटे भाई के भरण पोषण में असमर्थ हो गया और इस तरह चोरी करने के लिए मजबूर हुआ। इन सबमिशनों को ध्यान में रखते हुए, अदालत ने पुलिस को आदेश दिया कि वह उस लड़के को रिहा करे और उसे और उसके परिवार को भोजन और कपड़े उपलब्ध कराए। इसके अलावा अदालत ने ब्लॉक विकास अधिकारी (बीडीओ) को आधार कार्ड और परिवार का राशन कार्ड दिलाने में मदद करने का निर्देश दिया। अदालत ने बीडीओ को लड़के की विधवा मां की सहायता के लिए राज्य सरकार की विधवा पेंशन योजना के तहत पंजीकरण कराने का आदेश दिया और यह सुनिश्चित करने के लिए कि गरीबों के लिए सरकार की आवास योजना के तहत उनके परिवार को धन आवंटित किया जाए। अदालत ने इस मामले में अपने निर्देशों पर कार्रवाई की रिपोर्ट चार महीने के भीतर अदालत के सामने रखने का आदेश दिया। आरोपी लड़के को बाजार में एक महिला का पर्स छीनने के आरोप में बिहार शरीफ क्षेत्र में किशोर न्याय बोर्ड के निर्देश पर हिरासत में रखा गया था। बिहार शरीफ कोर्ट में तैनात न्यायिक कर्मचारी ने टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया कि "पूरी कवायद के पीछे मुख्य उद्देश्य छोटे अपराधों में बुक किए गए नाबालिगों को अवसर प्रदान करना है। यदि उन्हें सुधार गृह में भेजा गया तो बुरी वहां बुरी संगत में उनके बड़े अपराधियों में बदलने की आशंका है।" साभार-टाइम्स ऑफ इंडिया
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रविवार, 19 अप्रैल 2020
चोरी के आरोप में पकड़े गए किशोर को कपड़े और खाना देकर नालंदा अदालत ने रिहा किया, परिवार को राशन कार्ड देने के निर्देश
आरटीआई के तहत है छात्रों को अपनी खुद की उत्तर पुस्तिका के निरीक्षण का अधिकार-केद्रीय सूचना आयोग
केंद्रीय सूचना आयोग यानि सीआईसी ने पिछले दिनों माना है कि सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के तहत एक परीक्षार्थी को अपनी उत्तर पुस्तिका की जांच या निरीक्षण करने का अधिकार है। सीआईसी इस मामले में यूजीसी में कार्यरत एक सीनियर रिसर्च फैलो की तरफ से दायर अर्जी पर सुनवाई कर रहा था। इस मामले में एक आरटीआई की अर्जी सीपीआईओ,नेशनल इंस्ट्टियूट आॅफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंस (एनआईएमएचएएनएस) के खिलाफ दायर की गई थी। इस मामले में अर्जी दायर करने वाले ने अपनी उत्तर पुस्तिका के संबंध में सात तथ्यों पर जानकारी मांगी थी। यह उत्तर पुस्तिका उसकी एम.फिल पीएसडब्ल्यू के पार्ट-एक की वार्षिक व पूरक परीक्षा की थी। उसने यह परीक्षा वर्ष 2017 में दी थी।
इस आरटीआई के जवाब में सीपीआईओ ने उसे एक पत्र के जरिए सभी तथ्यों का जवाब दे दिया। परंतु अर्जी दायर करने वाला इससे संतुष्ट नहीं हुआ और उसने एफएए से जानकारी मांगी,जिन्होंने उसे कुछ अतिरिक्त जानकारी उपलब्ध करा दी। एफएए के आदेश का पालन करते हुए प्रार्थी ने सीआईसी के समक्ष अर्जी दायर कर दी। मामले की सुनवाई के दौरान प्रार्थी ने दलील दी कि उसे पूरी सूचना उपलब्ध नहीं कराई गई ओर जो उत्तर पुस्तिका उसने मांगी थी,उसे गलत तरीके से उपलब्ध कराने से इंकार कर दिया गया। इसके लिए हवाला दिया गया कि एनआईएनएचएएनएस में ऐसा कोई सिस्टम नहीं है,जिसके तहत पीजी के छात्र को वह उत्तर पुस्तिका उपलब्ध कराई जाए,जिसका मूल्याकंन या जांच हो चुकी हो। इसके अलावा प्रार्थी ने और भी कई मुद्दे उठाए,जिनमें संस्थान द्वारा परिणाम देने में देरी करने व पादर्शिता,पीएचडी कोर्स की मैरिट लिस्ट प्रकाशित न करा आदि शामिल है। प्रतिवादी के वकील ने दलील दी कि आरटीआई एक्ट की धारा 6 के तहत प्रार्थी वह सूचना ले सकता है जो सार्वजनिक अॅथारिटी के तहत उपलब्ध है। इस मामले में एनआईएनएचएएनएस के वर्तमान सिस्टम के तहत ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि पीजी के किसी छात्र को वह उत्तर पुस्तिका उपलब्ध कराई जाए,जिसका मूल्यांकन या जांच हो चुकी हो। चूंकि सार्वजनिक अॅथारिटी की पहुंच इस तरह के परिणाम तक नहीं है। इसलिए प्रार्थी को परिणाम उपलब्ध नहीं कराया गया। सीआईसी ने कहा कि एक छात्र की उसकी उत्तर पुस्तिका तक पहुंच के मामले में कानून पहले से ही तय हो चुका है। सीआईसी ने सीबीएसई एंड अन्य बनाम अदित्य बंदोपाध्याय एडं अदर्स एसएलपी (सी)नंबर 7526/2009 केस का हवाला दिया,इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि हर परीक्षार्थी को अपनी मूल्यांकित हो चुकी उत्तर पुस्तिका की जांच या निरीक्षण करने या उसकी फोटोकाॅपी लेने का अधिकार है,बशर्ते इसको आरटीआई एक्ट 2005 की धारा 8 (1)(ई) के तहत छूट न दी गई हो। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि जब कोई उम्मीदवार परीक्षा में भाग लेता है और अपना जवाब उत्तर पुस्तिका में लिखता है और उसे मूल्यांकन के लिए देता है,जिसके बाद परिणाम घोषित होता है। यह उत्तर पुस्तिका एक कागजात या रिकार्ड है। उत्तर पुस्तिका में जो ''विचार'' समाया होता है,वह आरटीआई के तहत सूचना बन जाता है। मूल्यांकित उत्तर पुस्तिका को आरटीआई एक्ट की धारा 8 से छूट होगी और परीक्षार्थी तक इसकी पहुंच होगी। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को देखते हुए पाया गया कि प्रार्थी ने अपनी उत्तर पुस्तिका तक अपनी पहुंच संस्थान के नियमों के तहत नहीं बल्कि आरटीआई एक्ट के तहत मांगी है। इसलिए वह यह सूचना पाने का हकदार है। आरटीआई एक्ट की धारा 22 के तहत इसके प्रावधान किसी अन्य कानून से उपर है। ऐसे में संस्थान के नियम या कानून से उपर आरटीआई के प्रावधान है। सीआईसी ने यह भी कहा कि अगर प्रार्थी छात्र को उसकी जांच का अधिकार नहीं दिया गया तो इससे उसके जीवन और आजीविका का अधिकार प्रभावित होगा। ''सीआईसी ने यह भी महसूस किया जो मामला उनके समक्ष लाया गया है,उसमें व्यापक जनहित शामिल है,जो उन सभी छात्रों के भविष्य को प्रभावित करेगा जो अपनी उत्तर पुस्तिका या उनके द्वारा प्राप्त किए गए अंकों के संबंध में जानकारी लेना चाहते है। जो उनके भविष्य के कैरियर की संभावनाओं पर असर डालेंगा और उससे उनके जीवन व आजीविका का अधिकार प्रभावित होगा। इसलिए आरटीआई एक्ट 2005 के तहत छात्रों को उनकी खुद की उत्तर पुस्तिका का निरीक्षण या जांच करने की अनुमति दी जा रही है।'' इस मामले में सीआईसी ने कई अन्य फैसलों का भी हवाला दिया और कहा कि सार्वजनिक अॅथारिटी का हर काम सार्वजनिक हित में होना चाहिए,जिससे देश की सामाजिक-आर्थिक कर्मशक्ति प्रभावित होती है। प्रार्थी द्वारा उठाए गए अन्य मुद्दों के संबंध में सीआईसी ने कहा कि यह सभी मामले उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर के है। उनका क्षेत्र सिर्फ यह देखना है कि मांगी गई सूचना उपलब्ध कराई गई है या नहीं या किस आधार पर सूचना देने से मना किया गया है। इसलिए अन्य मामले उनके अधिकारक्षेत्र में नहीं आते है। सीआईसी ने आदेश दिया है कि प्रतिवादी इस मामले में परीक्षार्थी को उसकी मूल्यांकित उत्तर पुस्तिका की काॅपी उपलब्ध करा दे। साथ ही कहा है कि प्रतिवादी समय-समय पर कांफ्रेंस आदि का आयोजन करवाए ताकि संबंधित अधिकारियों को कानून की जानकारी उपलब्ध कराई जा सके या सूचित किया जा सके। ताकि वह अपना उत्तरदायित्व ठीक से पूरा कर पाए। इसी के साथ अर्जी का निपटारा कर दिया गया।
शनिवार, 18 अप्रैल 2020
कोरोना रोगियो के शरीर को दफनाने से हुआ विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा निर्देश का उल्लंघन राज्य सरकार से हलफनामा दायर करने को कहा कलकत्ता हाईकोर्ट
कलकत्ता हाईकोर्ट ने गुरुवार को उस याचिका पर सुनवाई की,जिसमें कहा गया है कि मृत्यु के प्रमाण पत्र के बिना कोरोना रोगी के शरीर को कब्रिस्तान में दफनाना विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन या अनादर करना है। यह दिशा-निर्देश ''कोरोना के संदर्भ में संक्रमण की रोकथाम और नियंत्रण करने के लिए एक मृत शरीर के सुरक्षित प्रबंधन'' के संबंध में किए गए हैं।
याचिकाकर्ता ने व्यक्तिगत तौर पर पेश होते हुए तर्क दिया कि ''उनके निवास से सटा एक कब्रिस्तान है। 3 अप्रैल को, स्थानीय प्रशासन ने इस वायरस से संक्रमित होने के कारण मरने वाले एक बसरत मोल्लाह के शव को दफनाने की अनुमति दी थी,जबकि उसकी मौत के संबंध में कोई मृत्यु प्रमाण पत्र पेश नहीं किया गया। अदालत को यह भी बताया गया कि पिछले दिनों ही इस जिले को ''हाॅट स्पाट'' इलाका घोषित कर दिया गया था।'' याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया है कि राज्य के अधिकारियों ने विभिन्न आदेशों में निहित निर्देशों के अनुसार उचित कदम नहीं उठाए हैं। इन सभी आदेशों का काॅपी याचिका के साथ दायर की गई है। उसने बताया कि उसने एक प्रतिनिधित्व या ज्ञापन के माध्यम से अपनी शिकायत अधिकारियों के पास भेजी थी। लेकिन आज तक उस पर विचार नहीं किया गया है और न ही कोई उचित कदम उठाया गया है। इसलिए, इस तरह की निष्क्रियता में अदालत के तत्काल हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है। एकल पीठ ने इस मामले में सुनवाई करते हुए कहा कि-' " वर्तमान में कोरोना वायरस के कारण अभूतपूर्व स्थिति पैदा हो गई है। इसलिए इस आपदा को बढ़ने से रोकने के लिए अधिकारियों और बड़े स्तर पर जनसमूह को हाथ से हाथ मिलाकर या मिलकर काम करने की आवश्यकता है।' 'जहां तक संभव हो वायरस की रोकथाम को सुनिश्चित करना और साथ में चिंता,पीड़ा और खतरे की अवधारणा को कम करना ही एक ''अंतरिम उपाय'' है। अदालत ने राज्य-प्रतिवादियों को निर्देश दिया है कि ''याचिका के साथ दायर किए गए विभिन्न अधिकारियों की तरफ से जारी दिशा-निर्देशों के अनुसार सभी आवश्यक कदम सख्ती से उठाए जाएं।'' पीठ ने कहा है कि हलफनामे के रूप में एक रिपोर्ट दायर करके बताया जाए कि इस संबंध में क्या-क्या कदम उठाए गए हैं।
एक बार गिरवी, हमेशा के लिए गिरवी ? सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को 1978 में दायर एक मुकदमे को खारिज करते हुए यह सिद्धांत लागू किया कि किसी गिरवी चीज को वापस छुड़ाने का अधिकार केवल कानून द्वारा ज्ञात प्रक्रिया से ही समाप्त हो सकता है। न्यायमूर्ति मोहन एम शांतनागौदर और न्यायमूर्ति आर सुभाष रेड्डी की पीठ ने कहा, "यह सभी गिरवी रखी गई चीजों के लिए लागू कानूनी सिद्धांत से निकलता है -" एक बार कोई गिरवी, हमेशा एक गिरवी, " पीठ ने सिद्धांत को इस प्रकार समझाया, "यह अच्छी तरह से तय है कि बंधक विलेख के तहत इसे छुड़ाने का अधिकार समाप्त हो सकता है और ये केवल कानून द्वारा ज्ञात प्रक्रिया द्वारा ही समाप्त हो सकता है, अर्थात, इस तरह के प्रभाव के लिए पक्षकारों के बीच एक अनुबंध के माध्यम से, एक विलय द्वारा, या किसी वैधानिक प्रावधान द्वारा बंधक को छुड़ाने से गिरवी रखने वाले व्यक्ति को रोका जाता है। दूसरे शब्दों में, गिरवी रखने वाले गिरवीदार को गिरवी संपत्ति के कब्ज़े को छोड़ना होगा, जब उसे छुड़ाने का मुकदमा दायर किया जाता है, अन्यथा उसे ये साबित करना होगा कि उस कब्जे को छुड़ाने का अधिकार कानून के अनुसार समाप्त हो गया है।" यह मामला बॉम्बे हेरिडेटरी ऑफिसेज एक्ट , 1874 द्वारा शासित एक इनाम / वतन भूमि से संबंधित था। मूल वतनदार ने 1947 में रामचंद्र नामक व्यक्ति को भूमि के स्थायी किरायेदार के रूप में रखा। 1947 में ही, रामचंद्र ने शंकर सखाराम केंजल (सुप्रीम कोर्ट में अपीलकर्ताओं के पूर्वज) को जमीन गिरवी रख दी। विलेख के अनुसार,
बंधक रखने की अवधि 10 वर्ष थी, जिसके दौरान बंधक जमीन के कब्जे में रहेगा। 1950 में, बॉम्बे परगना और कुलकर्णी वतन (उन्मूलन) अधिनियम, 1950 (इसके बाद 'उन्मूलन अधिनियम') पारित किया गया, जिसने सभी वतन को समाप्त कर दिया और सरकार को भूमि को फिर से सौंप दी। उन्मूलन अधिनियम की धारा 4 ने वतन के धारक को अपेक्षित अधिभोग मूल्य के भुगतान पर भूमि का फिर से अनुदान लेने का अधिकार दिया। जमीन के पुन: अनुदान के लिए मूल वतन ने आवेदन नहीं किया। हालांकि, बंधक, ने जमीन पर फिर से अनुदान के लिए आवेदन किया कि वह जमीन के कब्जे में था, और उसे अंततः फिर से अनुदान मिला। 1978 में, मूल बंधक के कानूनी उत्तराधिकारी, रामचंद्र ने गिरवी जमीन को छुड़ाने और बंधक धन प्राप्त होने पर भूमि पर कब्जे की वसूली के लिए मुकदमा दायर किया। ट्रायल कोर्ट ने 1983 में इस मुकदमे को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि उन्मूलन के अधिकार को उन्मूलन अधिनियम द्वारा समाप्त कर दिया गया था।इसके खिलाफ दायर पहली अपील को 1987 में खारिज कर दिया गया था। वादी ने 1987 में उच्च न्यायालय के समक्ष दूसरी अपील दायर की। बीस साल बाद, उच्च न्यायालय ने अपील की अनुमति देते हुए कहा कि गिरवी छुड़ाने का अधिकार खोया नहीं है। यह इस आधार पर किया गया था कि लेकिन गिरवी सूट भूमि गिरवी रखने वाले के कब्जे में नहीं होगी और वह अपने पक्ष में पुन: अनुदान आदेश प्राप्त नहीं कर सकता था। यह देखते हुए कि अंतर्निहित गिरवी रखने वाले- गिरवी लेने वाले के संबंध पर इस तरह के पुन: अनुदान का अनुमान लगाया गया था, यह माना गया था कि ऐसे पुन: अनुदान के आधार पर गिरवी रखे गई संपत्ति द्वारा प्राप्त लाभ को गिरवीकर्ता को प्राप्त करना होगा। बचाव पक्ष ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। 11 साल बाद, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हाईकोर्ट के फैसले की पुष्टि करते हुए याचिका को खारिज कर दिया। इस सिद्धांत के बाद कि गिरवी छुड़ाने का अधिकार केवल कानून की प्रक्रिया के माध्यम से खो सकता है। पीठ ने देखा "हमारे विचार में, गिरवी के रूप में वास्तविक कब्जे के आधार पर अपीलकर्ताओं के पूर्वजों के फिर से अनुदान को पक्षकारों के बीच अंतर्निहित गिरवी रखने वाले- गिरवी लेने वाले - संबंध के अस्तित्व से अलग नहीं किया जा सकता है। इसलिए, गिरवी संपत्ति द्वारा प्राप्त करने वाले किसी भी लाभ को मिराशी किरायेदार- गिरवी लेने वाले के बीच में आवश्यक रूप से सुनिश्चित करना चाहिए। " अदालत ने भारतीय न्यास अधिनियम की धारा 90 के तहत सिद्धांत को भी लागू किया, जिसके बारे में पीठ ने कहा: "इस प्रावधान को पढ़ने से संकेत मिलता है कि अगर एक गिरवी लेने वाला इसी रूप में अपनी स्थिति का लाभ उठाकर, कोई लाभ प्राप्त करता है जो गिरवी रखने वाले के अधिकार के अपमान में होगा, तो उसे गिरवी संपत्ति के लाभ के लिए इस तरह के लाभ को धारण करना होगा।" न्यायालय ने माना कि गिरवी संपत्ति को छुड़ाने का अधिकार समाप्त नहीं किया गया था, बल्कि ये उन्मूलन अधिनियम के साथ-साथ बॉम्बे टेनेंसी और एग्रीकल्चर लैंड एक्ट, 1948 के प्रावधानों के तहत संरक्षित था।
सुप्रीम कोर्ट में याचिका : टेस्ट में नेगेटिव पाए जाने वाले प्रवासी मज़दूरों को अपने गांव जाने की मिले इजाजत
देश भर में फंसे लाखों प्रवासी कामगारों के मौलिक अधिकार के जीवन के प्रवर्तन के लिए केंद्र और राज्यों को उनके गृहनगर और गांवों में सुरक्षित यात्रा की व्यवस्था करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई है। याचिकाकर्ता, आईआईएम-अहमदाबाद के पूर्व डीन जगदीप एस छोकर और वकील गौरव जैन ने प्रार्थना की है कि लॉकडाउन के विस्तार के मद्देनज़र, विभिन्न राज्यों में फंसे श्रमिकों को आवश्यक परिवहन सेवाएं प्रदान की जाएं जो अपने घर लौटना चाहते हैं। वकील प्रशांत भूषण के माध्यम से दायर याचिका में याचिकाकर्ता का कहना है कि प्रवासी कामगार, जो चल रहे लॉकडाउन के कारण सबसे ज्यादा प्रभावित वर्ग के लोगों में से हैं, को COVID-19 के परीक्षण के बाद अपने घरों में वापस जाने की अनुमति दी
जानी चाहिए। याचिका में कहा गया है कि "जो लोग COVID-19 के लिए नकारात्मक परीक्षण करते हैं, उन्हें आश्रय स्थलों में उनकी इच्छाओं के खिलाफघरों और परिवारों से दूर ज़बरदस्ती नहीं रखा जाना चाहिए . उत्तरदाताओं को उनके गृहनगर और गांवों में सुरक्षित यात्रा के लिए अनुमति देनी चाहिए और उसके लिए आवश्यक परिवहन प्रदान करना चाहिए।" यह बताया गया है कि बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिक हैं, जो अपने परिवार के साथ रहने के लिए अपने पैतृक गांवों में वापस जाने की इच्छा रखते हैं, और 24 मार्च को घोषित 21 दिनों के राष्ट्रीय तालाबंदी के मद्देनज़र अचानक भीड़ से ये स्पष्ट है जो विभिन्न बस टर्मिनलों पर बेकाबू अराजकता का कारण बनी। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि " ऐसे कई प्रवासी मज़दूरों की दुखद मौतों के उदाहरण हैं जो बिना किसी विकल्प के साथ छोड़ दिए गए थे और उन्होंने सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने मूल स्थानों की यात्रा की। हाल ही में, ऐसी मीडिया रिपोर्ट आई हैं, जो बताती हैं कि प्रवासी मज़दूर अपनी मज़दूरी का भुगतान न करने और अपने पैतृक गांवों में लौटने की मांग के कारण कुछ स्थानों पर सड़कों पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। प्रवासी श्रमिकों को स्थानीय निवासियों द्वारा परेशान किए जाने और यहां तक कि पीटे जाने के मामले सामने आए हैं। हालांकि COVID- '19 की अभूतपूर्व महामारी की वजह से राष्ट्रीय तालाबंदी की आवश्यकता है और यह बहुत जरूरी है।" अनुच्छेद 19 (1) (डी) के तहत विस्थापित प्रवासी श्रमिकों के मौलिक अधिकार [स्वतंत्र रूप से भारत के किसी भी क्षेत्र में स्थानांतरित करने का अधिकार] और संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ई) [किसी भी हिस्से में निवास करने और बसने का अधिकार ] इन क्षेत्रों में प्रवासी श्रमिकों को अपने परिवार से दूर रहने और अप्रत्याशित और कठिन परिस्थितियों में रहने के लिए मजबूर करने के लिए, अनिश्चित काल के लिए निलंबित नहीं किए जा सकते हैं, जैसा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (5) के तहत परिकल्पना से परे एक अनुचित प्रतिबंध है, " याचिका में जोर दिया गया है। इसके अलावा, यह तर्क दिया गया है कि चूंकि लॉकडाउन का यह विस्तार प्रवासी श्रमिकों पर एक अनुचित और भारी बोझ डाल रहा है, जो अपने प्रवास के शहरों में फंसे हुए लोगों की तुलना में अपने स्वयं के परिवारों के साथ रह रहे है और ये संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है। इसके अलावा, यह तर्क भी दिया गया है कि देश के संविधान का अनुच्छेद 21 भी गरिमा के साथ जीने के अधिकार की परिकल्पना करता है और इन प्रवासी कामगारों को इससे मना किया जा रहा है। याचिका में कहा गया है कि " उक्त तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए, यह याचिकाकर्ताओं द्वारा यहां प्रस्तुत किया गया है, अब, जब राष्ट्रव्यापी तालाबंदी की दूसरी अवधि 15.04.2020 से 03.05.2020 के लिए घोषित की गई है, तो राज्य के अधिकारियों को उन प्रवासी श्रमिकों की सुरक्षित यात्रा की व्यवस्था करनी चाहिए जो अपने पैतृक गांवों और अन्य राज्यों के गृहनगर वापस जाना चाहते हैं।" इस उद्देश्य के लिए, यह प्रार्थना की गई है कि राज्य सरकारों द्वारा आवश्यक परिवहन सेवाएं प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराई जा सकें, ताकि 'सामाजिक दूरी' का उद्देश्य पराजित न हो। उन सभी प्रवासी श्रमिकों के COVID-19 के परीक्षण के लिए उपयुक्त व्यवस्था भी मांगी गई है, जो उनके यात्रा के प्रस्थान के स्थान पर या आगमन के स्थान पर किया जा जा सकता है।
लॉकडाउन के दौरान अपने कामगारों को 100 फीसदी वेतन देने के सरकारी आदेश को व्यावसायिक प्रतिष्ठानों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चुनौती
29 मार्च और 31 मार्च, 2020 के उस सरकारी आदेश (GO) को रद्द करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई है, जिसमें लॉकडाउन के दौरान कर्मचारियों, अनुबंध कर्मचारियों, दिहाड़ी श्रमिकों और अन्य श्रमिकों को पूर्ण वेतन का भुगतान करने के दिशा-निर्देश दिए गए हैं, भले ही कारखाने चालू न हों। 29 मार्च, 2020 को सरकार के गृह मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 की धारा 10 (2XI) के तहत जारी किए गए आदेश N0.40-3 / 2020-DMI (ए) में केवल खंड iii में अतिरिक्त उपाय की सीमित सीमा तक, की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए जिसमें कहा गया कि "सभी नियोक्ता होने के नाते, चाहे यह उद्योग में या दुकानों और वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों में हो, अपने श्रमिकों के वेतन का भुगतान उनके कार्य स्थलों पर, नियत तिथि, बिना किसी कटौती के करेंगे, भले ही लॉकडाउन अवधि के दौरान उनके प्रतिष्ठान बंद रहते हैं। " याचिकाकर्ता, नागरीका एक्सपोर्ट्स लिमिटेड कॉटन यार्न, फैब्रिक और टेक्सटाइल के निर्माण और निर्यात में लगी हुई है और यह दावा किया है कि चूंकि लॉकडाउन की अवधि के दौरान कोई राजस्व उत्पन्न नहीं होता है, इसलिए याचिकाकर्ता के लिए 1400 वर्कमैन और 150 कर्मचारियों का भुगतान करना असंभव हो गया है। याचिका में कहा गया है,
"याचिकाकर्ता को लगभग 1.75 करोड़ रुपये की आवश्यकता है। लेकिन इन निर्देशों ने देश में बड़ी संख्या में नियोक्ताओं के लिए संकट पैदा कर दिया है, जो कि संकट के इस अवधि के दौरान अपने कर्मचारियों का समर्थन करने के लिए अपने सर्वोत्तम इरादों और प्रयासों के बावजूद मुश्किल में हैं।" याचिकाकर्ता ने कारखाना मालिकों द्वारा पेश की गई कठिनाइयों पर प्रकाश डाला और कहा है कि भले ही उन्होंने मार्च 2020 के महीने के लिए पूर्ण रूप से मजदूरी का भुगतान किया हो, भले ही माह के अंतिम सप्ताह के दौरान संचालन पूरी तरह से बंद हो गया हो, यह याचिकाकर्ता के लिए "लगभग असंभव" है कि अपने कर्मचारियों के वेतन का खर्च वहन करता रहे। इस मुद्दे की तात्कालिकता पर जोर देते हुए, याचिकाकर्ता ने कहा कि GO का अनुपालन न करने का उस पर गंभीर प्रभाव होगा और वह आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के तहत दंडनीय परिणाम भुगतने को बाध्य होगा। याचिकाकर्ता सरकार द्वारा दिए गए निर्देशों की वाजिबता पर सवाल उठाता है और GO के लिए "क्या विवेक पूर्ण ध्यान और विचार-विमर्श" किया गया था, की दलील देता है। इसके अलावा, याचिकाकर्ता, अन्य बातों के साथ, कानून के महत्वपूर्ण सवाल भी उठाता है जैसे कि क्या भारत सरकार और महाराष्ट्र को निजी प्रतिष्ठानों को आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 के तहत 100% मजदूरी का भुगतान करने के लिए निर्देश जारी करने का अधिकार है या नहीं और सभी श्रमिकों को मजदूरी का अनिवार्य भुगतान, कटौती के बिना संभव है। इस पृष्ठभूमि में, याचिकाकर्ता ने सरकारी आदेशों की संविधान के अनुच्छेद 14 और 19 के तहत वैधता का विरोध किया है। याचिका में कहा गया है कि "यह एक अच्छी तरह से तय किया गया कानून है कि अनुमेयता के संवैधानिक परीक्षण को पूरा करने के लिए, दो स्थितियों को संतुष्ट करना चाहिए, अर्थात् (i) यह कि वर्गीकरण एक बुद्धिमान अंतर पर स्थापित किया गया है जो उन व्यक्तियों या चीजों को अलग करता है जो दूसरों से एक साथ समूहीकृत हैं। समूह, और (ii) कि इस तरह के विभिन्नता को प्राप्त करने के लिए मांगी गई वस्तु से तर्कसंगत संबंध है।" इसलिए, याचिकाकर्ता ने अपने श्रमिकों / कर्मचारियों को मूल वेतन व डीए का 50% ( PF और ESIC अंश के भुगतान के बिना) मजदूरी का भुगतान करने के लिए दिशा निर्देश मांगे हैं क्योंकि यह कामगार के हाथों में अधिक पैसा देगा। " ये याचिका एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड कृष्ण कुमार ने दायर की है।
बॉम्बे हाईकोर्ट ने जिला कलेक्टरों से पूछा-क्या प्रवासी मजदूरों की मनोवैज्ञानिक सहायता के लिए भी प्रयास किए जा रहे हैं
बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद बेंच बुधवार को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सभी जिला कलेक्टरों से पूछा है कि उनके अधिकार क्षेत्रों में फंसे प्रवासी मजूदरों की मनोचिकित्सकीय सहायता के लिए स्थानीय प्रशासन ने कोई प्रयास किया है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि प्रवासी मजदूरों को मानसिक आघात न हो या वे कोई घातक कदम न उठा लें। उल्लेखनीय है कि 14 अप्रैल को बांद्रा और मुंब्रा में सैकड़ों की संख्या में मजदूर सड़कों पर उतर आए थे अपने घर भेजे जाने की मांग करने लगे। पुलिस ने लाठीचार्ज कर भीड़ को तितर-बितर किया था। बाद में लॉकडाउन का उल्लंघन करने के आरोप में कई प्रवासी मजदूरों को गिरफ्तार किया गया। उन घटनाओं की पृष्ठभूमि में जस्टिस आरवी घुगे का निर्देश महत्वपूर्ण माना जा रहा है। एमिकस क्यूरी अमोल जोशी ने कोर्ट को बताया कि ऐसी ही एक याचिका बांबे हाईकोर्ट की मुख्य पीट पर भी
दाखिल की गई है, जिनमें उस पीठ के अधिकार क्षेत्र में आने वाले जिलों को शामिल किया गया है। उन्होंने औरंगाबाद पीठ के अधिकार क्षेत्र में आने वाले सभी जिलों के जिला कलेक्टरों को जोड़ने का निवेदन किया। कोर्ट ने जिला कलेक्टरों से निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर मांगे थे- (क) इन जिलों में फंसे प्रवासी मजदूरों की संख्या। (ख) क्या जिलों में ऐसे प्रवासी मजदूरों, जो लॉकडाउन के कारण अपने घर लौटने में असमर्थ हैं, की देखभाल के लिए कोई आश्रय गृह है। (ग) क्या स्थानीय प्रशासन ने प्रवासी मजदूरों की मनोवैज्ञानिक सहायता के लिए कोई प्रयास किए हैं ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उन्हें मानसिक आघात न हो या वो कई घातक कदम न उठा लें। पीठ ने सभी जिला कलेक्टरों को मामले में उत्तरदाता के रूप में शामिल करने का निर्देश दिया। साथ ही सरकारी वकील डीआर काले को जिला कलेक्टरों को उपरोक्त मुद्दों का डाटा तैयार करने का निर्देश देने के लिए कहा है। डाटा इकट्ठा करने के लिए दो सप्ताह का समय दिया गया है। कोर्ट ने एमिकस क्यूरी और सरकारी वकील काले को उन समाचार रिपोर्टों पर ध्यान देने के लिए कहा, जिनमें दावा किया गया है कि कोरोनावायरस के संदिग्धों की जांच और उपचार में शामिल डॉक्टर, मेडिकल और पैरा मेडिकल स्टाफ को परेशान किया जा रहा हैं। सरकारी वकील काले ने अदालत को आश्वासन दिया कि स्थानीय प्रशासन यह सुनिश्चित करेगा कि COVID-19 महामारी के खिलाफ लड़ाई में शामिल डॉक्टरों, मेडिकल और पैरा मेडिकल स्टाफ को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की जाए। मामले की अगली सुनवाई कोर्ट खुलने के पहले दिन होगी या 4 मई के बाद होगी।
द वायर और सिद्धार्थ वरदराजन के खिलाफ एफआईआर की शिक्षाविदों, न्यायविदों, कलाकारों ने निंदा की, बयान जारी किया
करीब 3500 से अधिक शिक्षाविदों, न्यायविदों, कलाकारों और लेखकों ने द वायर के संस्थापक संपादकों में से एक सिद्धार्थ वरदराजन के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज करने पर उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में यूपी पुलिस की कार्रवाई की आलोचना करते हुए एक बयान जारी किया है। जारी किये गए बयान में यूपी पुलिस की कार्रवाई को मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला कहा गया है, विशेष रूप से COVID -19 संकट के दौरान। बयान में इस कार्रवाई की निंदा की गई है, क्योंकि यह न केवल मुक्त भाषण के पहलू को खतरे में डालता है, बल्कि जनता के सूचना के अधिकार को भी बाधित करता है।
बयान पर हस्ताक्षरकर्ताओं में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) मदन बी। लोकुर, मद्रास उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश (सेवानिवृत्त) के चंद्रू और पटना उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) अंजना प्रकाश शामिल हैं। तबलीगी जमात और COVID 19 के संपर्क में आने पर एक लेख के बाद द वायर और वरदराजन के खिलाफ दो एफआईआर दर्ज की गईं। लेख में यह बताया गया है कि "भारतीय विश्वासी" आम तौर पर सावधानी बरतने और मण्डली से बचने के लिए देर से कदम उठाते हैं और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के लॉकडाउन की घोषणा के एक दिन बाद (25 मार्च) अयोध्या में एक धार्मिक मेले के आयोजन का ज़िक्र किया गया। यह एफआईआर 1 अप्रैल को अयोध्या निवासी और कोतवाली नगर पुलिस स्टेशन, फैजाबाद के एसएचओ की शिकायत के आधार पर दर्ज की गई थी। "एफआईआर में लगाए गए अनुभागों को पढ़ने पर स्पष्ट होता है कि वे प्रश्न में लेख पर लागू नहीं हो सकते। एफआईआर के बाद 10 अप्रैल को डराने-धमकाने के अंदाज़ में पुलिसकर्मी काले रंग की एसयूवी में बिना किसी नंबर प्लेट की गाड़ी में वरदराजन के दिल्ली आवास में एक कानूनी नोटिस जारी करने के लिए पहुंचे और उन्हें 14 अप्रैल को सुबह 10 बजे अयोध्या में पेश होने का आदेश दिया। यह बयान यूपी पुलिस की गलत प्राथमिकताओं को रेखांकित करता है, जिसमें लॉककेडाउन के दौरान 700 किलोमीटर की दूरी पर ड्राइव कर पुलिस ने वरदराजन को नोटिस दिया गया, जबकि समन जारी करने के लिए डाक प्रणाली चालू है। "द वायर, अन्य स्वतंत्र मीडिया और पत्रकारों के साथ, तथ्यों को प्रस्तुत करने के लिए साहसी और सुसंगत रहा है। यूपी पुलिस की कार्रवाई सत्ताधारी प्रतिष्ठान, या उनके करीब के लोगों द्वारा किए गए प्रयासों में द वायर के संपादक को कानूनी मामलों में उन्हेंउ लझाने का एक नया प्रयास है।" निष्कर्षतः, कथन में कहा गया है कि निम्नलिखित कार्रवाई की जानी चाहिए: 1. उत्तर प्रदेश सरकार सिद्धार्थ वरदराजन और द वायर के खिलाफ एफआईआर वापस लेने के लिए संज्ञान ले और सभी आपराधिक कार्यवाही निरस्त कर दे। 2. हम भारत सरकार और सभी राज्य सरकारों से अनुरोध करते हैं कि वे मीडिया स्वतंत्रता को रौंदने के लिए महामारी का उपयोग न करे। एक चिकित्सा आपातकाल को एक वास्तविक राजनीतिक आपातकाल लगाने के बहाने के रूप में काम नहीं करना चाहिए। 3. हम भारतीय मीडिया से महामारी का सांप्रदायिकरण न करने का आह्वान करते हैं।
शारदा घोटाला : सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया टायकून रमेश गांधी की ज़मानत अर्ज़ी पर केंद्र को दो सप्ताह में जवाब दाखिल करने को कहा
सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को मीडिया टायकून रमेश गांधी की जमानत याचिका पर केंद्र को दो सप्ताह के भीतर अपना जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया। जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस बी.आर. गवई की एक पीठ ने रमेश गांधी की नियमित जमानत की याचिका पर सुनवाई की। रमेश गांधी शारदा घोटाले के आरोप में 4 साल और 8 महीने हिरासत में हैं। रमेश गांधी के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता विकास सिंह पेश हुए और उन्होंने कहा कि घोटाले में उनके क्लाइंट की संलिप्तता के बारे में सीबीआई का रुख उन्हें "किंगपिन" के रूप में पेश करने के रूप में गलत था। सिंह ने आगे कहा कि उनका मुवक्किल लंबे समय से हिरासत में
, फिर भी उनके खिलाफ मुकदमा चला, इसलिए, वह जमानत के लिए पात्र थे। दूसरी ओर भारत के संघ के लिए उपस्थित वरिष्ठ अधिवक्ता नटराजन ने सिंह के तर्क को खारिज कर दिया। नटराजन ने कहा, "वह कई लेनदेन के प्राप्तकर्ता रहे हैं। वह पूरे घोटाले में मुख्य किंगपिन है।" पीठ ने मीडिया टाइकून के खिलाफ लगाए गए आरोपों के बारे में पूछताछ की। भारत संघ ने इस संबंध में जवाब दाखिल करने के लिए समय मांगा जिसे पीठ ने अनुमति दी और मामला 4 मई, 2020 के लिए सूचीबद्ध किया। रमेश गांधी को केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा कथित रूप से शामिल होने के लिए गिरफ्तार किया गया था। सीबीआई के अनुसार, गांधी शारदा मालिक के साथ निकटता से जुड़े हुए थे और घोटाला करने वाले किंगपिन "सुदीप्त सेन" और विशाल धनराशि कथित तौर पर उनके और उनके कंपनी बैंक खातों में स्थानांतरित कर दी गई थी। यह घोटाला 2013 की शुरुआत में सार्वजनिक रूप से सामने आया था। इसमें कोलकाता स्थित शारदा समूह भी शामिल था, जिसका आरोप था कि जनता से 2,500 करोड़ रुपये तक की जमा राशि जमा की गई थी, लेकिन भुगतान करने के समय समूह रुपए का भुगतान नहीं कर पाया। रमेश गांधी शारदा समूह के कॉर्पोरेट मामलों के विभाग की देखभाल कर रहे थे। वकील यूनुस मलिक भी सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता के लिए पेश हुए और उन्होंने लाइव लॉ को इनपुट दिया। सुनवाई वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से आयोजित की गई थी। याचिका एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड समीर मलिक द्वारा दायर की गई थी।
झारखंड हाईकोर्ट ने जमानत के लिए रखी शर्त-पीएम केयर्स में 35000 रुपए जमा करें और आरोग्य सेतु ऐप डाउन लोड करें
झारखंड हाईकोर्ट ने एक पूर्व सांसद और पांच अन्य को इस शर्त पर जमानत दी है कि वे पीएम केयर्स फंड में 35,000 रुपए जमा करेंगे। साथ ही पैसे जमा करने का प्रमाण भी कोर्ट में पेश करेंगे। जस्टिस अनुभा रावत चौधरी ने अपने आदेश में याचिकाकर्ताओं को निर्देश दिया कि रिहा होने के तुरंत बाद वे 'आरोग्य सेतु ऐप' डाउनलोड करें और COVID 19 की रोकथाम के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार की ओर से जारी निर्देशों का पालन करें। अतिरिक्त लोक अभियोजक राकेश कुमार सिन्हा ने बताया कि छह याचिकाकर्ताओं, भाजपा के पूर्व सांसद सोम मरांडी, विवेकानंद तिवारी, अमित अग्रवाल, हिसाबी राय, संचय बर्धन, और अनुग्रह नारायण पर 15 मार्च 2012 को पाकुड़ में 'रेल रोको' आंदोलन करने के आरोप में मुकदमा दर्ज किया गया था। रेलवे न्यायिक मजिस्ट्रेट ने याचिकाकर्ताओं को रेलवे अधिनियम की धारा 174 (ए) के तहत एक वर्ष के कारावास की सजा सुनाई थी। याचिकाकर्ताओं ने सत्र अदालत के समक्ष अपील की थी, जिसे खारिज कर दिया गया। बाद में उन्होंने सत्र न्यायालय के आदेश को रद्द करने के लिए हाईकोर्ट में आपराधिक संशोधन याचिका दायर की थी। वे पिछले फरवरी से हिरासत में थे। याचिकाकर्ताओं के वकील ने कहा कि याचिकाकर्ता, पीएम केयर्स फंड में योगदान देने समेत, कोर्ट की ओर से तय किसी भी शर्त का पालन करेंगे। कोर्ट ने आदेश में याचिकाकर्ताओं से कहा कि वे अपने आधार कार्ड की एक स्व-सत्यापित प्रति जमा करें, साथ ही अपना मोबाइल नंबर दें, जिसे वे अदालत की अनुमति के बिना नहीं बदलेंगे। हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ताओं पर निम्न शर्तें लागू की हैं- (i) याचिकाकर्ता रिहा होने से पहले पीएम केयर्स फंड में 35,000 रुपए जमा करने का प्रमाण पेश करेंगे। (ii) याचिकाकर्ता रिहा होने के तुरंत बाद 'आरोग्य सेतु ऐप' डाउनलोड करेंगे। COVID-19 की रोकथाम के लिए जारी किए गए केंद्र सरकार व राज्य सरकार के निर्देशों का पालन करेंगे। (iii) याचिकाकर्ता अपने आधार कार्ड की स्वप्रमाणित प्रति जमा करेंगे और अपना मोबाइल नंबर भी देंगे, जिसे वे अदालत की अनुमति के बिना नहीं बदलेंगे।
बुधवार, 15 अप्रैल 2020
भीमा कोरेगांव हिंसा : गौतम नवलखा और आनंद तेलतुंबडे ने NIA के समक्ष आत्मसमर्पण किया
प्रसिद्ध शिक्षाविद और दलित अधिकार के विद्वान आनंद तेलतुंबडे और नागरिक स्वतंत्रता कार्यकर्ता गौतम नवलखा ने मंगलवार को भीमा कोरेगांव हिंसा के संबंध में माओवादी लिंक के आरोप में गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत दर्ज मामले में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। डॉक्टर बी आर अम्बेडकर के पोते तेलतुंबडे ने एनआईए के मुंबई कार्यालय में आत्मसमर्पण किया और नवलखा ने नई दिल्ली में आत्मसमर्पण किया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा उन्हें मामले में आत्मसमर्पण करने के लिए दी गई 7-दिवसीय मोहलत आज अंतिम दिन था। आत्मसमर्पण करने से पहले, शैक्षणिक-कार्यकर्ता तेलतुंबडे ने भारत के लोगों के लिए एक खुला पत्र लिखा, जिसमें कहा गया कि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं है। पत्र में कहा गया कि "मुझे 13 में से पांच पत्रों के आधार पर फंसाया गया है, जो पुलिस ने मामले में दो गिरफ्तार व्यक्तियों के कंप्यूटरों से बरामद किए हैं। मेरे पास से कुछ भी बरामद नहीं हुआ। " उन्होंने कहा, "और यह सचमुच किसी के साथ भी हो सकता है।" "जैसा कि मैं देख रहा हूं कि मेरा भारत बर्बाद हो रहा है, यह एक उम्मीद के साथ है कि मैं आपको इस तरह के गंभीर क्षण में लिख रहा हूं। खैर, मैं एनआईए की हिरासत में जा रहा हूं और यह नहीं जानता कि मैं आपसे कब बात कर पाऊंगा। हालांकि , मुझे पूरी उम्मीद है कि आपकी बारी आने पर आप बात करेंगे। आत्मसमर्पण करने से पहले भेजे गए एक खुले पत्र में नवलखा ने कहा "मेरी उम्मीद अपने और मेरे सह-अभियुक्त के लिए एक त्वरित और निष्पक्ष सुनवाई पर टिकी हुई है। यह मुझे अपना नाम साफ़ करने और स्वतंत्र चलने में सक्षम बनाएगी, साथ ही जेल में समय का उपयोग करके खुद को अधिग्रहित आदतों से छुटकारा दिला सकता हूं।" दो दिन पहले, इतिहासकार रोमिला थापर, अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक और देवकी जैन, समाजशास्त्री सतीश देशपांडे और वकील मेजा दारूवाला ने भारत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे को लिखा था कि तेलतुंबडे और नवलखा की गिरफ्तारी को रोकने के लिए उनसे हस्तक्षेप करने की मांग की थी। उन्होंने मुख्य न्यायाधीश को लिखे पत्र में कहा, अभियोजन के पास अपना मामला बनाने के लिए पहले से ही पर्याप्त समय है।
भूमि की सर्वोच्च अदालत प्रक्रिया को सजा नहीं बनने दे सकती। आपके नेतृत्व में, सुप्रीम कोर्ट को निर्णायक रूप से यह प्रदर्शित करने के लिए कार्य करना चाहिए कि यह वास्तव में लोगों के अधिकारों और संविधान का रक्षक है।" 8 अप्रैल को जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने COVID-19 महामारी के आधार पर तेलतुंबडे और नवलखा द्वारा की गई प्रार्थना को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। इसी बेंच में शामिल न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी ने अंतिम मौके के रूप में गिरफ्तारी से संरक्षण का समय एक सप्ताह और बढ़ा दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने 16 मार्च को भीमा कोरेगांव मामले में एक्टिविस्ट गौतम नवलखा और आनंद तेलतुंबडे को अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया था। जस्टिस अरुण मिश्रा और जस्टिस एमआर शाह की खंडपीठ ने बॉम्बे हाईकोर्ट के 15 फरवरी के फैसले को चुनौती देने वाली उनकी विशेष अनुमति याचिकाओं को खारिज कर दिया, जिसमें इस आधार पर उन्हें अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया गया था कि रिकॉर्ड पर उपलब्ध सामग्री के आधार पर उनके खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनाया गया था। बॉम्बे उच्च न्यायालय ने गौतम नवलखा और तेलतुंबडे को अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया था। हालांकि गिरफ्तारी से अंतरिम संरक्षण को चार सप्ताह की अवधि के लिए बढ़ा दिया ताकि वे अपील में सर्वोच्च न्यायालय का रुख कर सकें। उनकी याचिकाओं पर नोटिस जारी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 16 मार्च तक ऐसी अंतरिम सुरक्षा बढ़ा दी थी। 16 मार्च को पीठ ने कहा कि जांच एजेंसी द्वारा एकत्र की गई सामग्री को देखते हुए याचिकाएं सुनवाई योग्य नहीं हैं। हालांकि याचिकाकर्ताओं के वकील ने अंतरिम संरक्षण के कम से कम एक सप्ताह के विस्तार की मांग की थी, लेकिन पीठ ने इनकार कर दिया। दरअसल 1 जनवरी, 2018 को पुणे जिले के कोरेगांव भीमा गांव में हिंसा के बाद गौतम नवलखा और आनंद समेत अन्य कार्यकर्ताओं को पुणे पुलिस ने उनके कथित माओवादी लिंक और कई अन्य आरोपों के लिए आरोपी बनाया है।
ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट 1940 की धारा 3 (बी) (i) के तहत मेडिकल ऑक्सीजन आईपी और नाइट्रस ऑक्साइड आईपी भी 'दवाएं' हैं: सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि 'मेडिकल ऑक्सीजन आईपी' और 'नाइट्रस ऑक्साइड आईपी' भी ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट 1940 की धारा 3 (बी) (i) के अर्थ में 'दवा' हैं। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस अजय रस्तोगी की पीठ ने कहा कि इन गैसीय पदार्थों पर आंध्र प्रदेश मूल्य वर्धित कर अधिनियम 2005 की अनुसूची V की प्रविष्टि 88 के तहत 'दवाओं' के रूप में कर लगाया जाए। बेंच ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ आंध्र प्रदेश सरकार की ओर से दायर अपील पर विचार कर रही थी, जिसमें कहा गया था कि ये पदार्थ अनुसूची IV के तहत दवाओं के रूप में कर योग्य हैं। राज्य के अनुसार, वे अनुसूची V के तहत 'अवर्गीकृत माल' के रूप में कर योग्य हैं, जिन पर अनुसूची IV की तुलना में ज्यादा कर लगता है। हाईकोर्ट का कहना था कि ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट 1940 की धारा 3 (बी) (i) में, उल्लिखित अभिव्यक्ति 'ड्रग्स' के दायरे में ऐसे सभी पदार्थ शामिल हैं, जिसका उपयोग रोग या विकार के उपचार, रोकथाम और शमन के लिए किया जाता है। हाईकोर्ट ने कहा था कि, (i) मेडिकल ऑक्सीजन आईपी का उपयोग रोगियों के उपचार, रोगों और विकारों की तीव्रता को कम करने के लिए किया जाता है, और (ii) नाइट्रस ऑक्साइड आईपी का उपयोग सर्जिकल ऑपरेशन और मामूली प्रोसिजर्स में ऐनेस्थेटिक के रूप में किया जाता है।
हाईकोर्ट के निर्णय को चुनौती देते हुए आंध्र प्रदेश सरकार ने दलील दी थी कि प्रत्येक 'पदार्थ' को केवल इसलिए एंट्री 88 के दायरे में नहीं रखा जा सकता है, क्योंकि इसका उपयोग औषधीय प्रयोजनों के लिए किया जाता है। एंट्री 88 के दायरे में आने वाला पदार्थ 1940 अधिनियम की धारा 3 (1) (बी) में निर्धारित परिभाषा के अनुरूप होना चाहिए। न्यायालय ने नोट किया कि अनुसूची IV की प्रविष्टि 88 के दायरे में ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट 1940 की धारा 3 के तहत परिभाषित 'दवाएं और औषधियां' शामिल हैं। इसलिए कोर्ट के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या 'मेडिकल ऑक्सीजन' और 'नाइट्रस ऑक्साइड' अधिनियम के अनुसार दवा होंगी? धारा 3 (बी) (i) में किसी बीमारी या विकार के निदान, उपचार, शमन या रोकथाम के लिए या में उपयोग की जाने वाली दवाएं या पदार्थ शामिल हैं। 'मेडिसिन' शब्द को 1940 अधिनियम में परिभाषित नहीं किया गया है। इसलिए, न्यायालय ने शब्द के सामान्य अर्थ का उपयोग किया। 'मेडिसिन' शब्द की सामान्य या लोकप्रिय समझ को, सामान्य और विशेष रूप से, किसी भी बीमारी या विकार के निदान, उपचार, शमन या रोकथाम में के लिए उपयोगी इसके उपचारात्मक गुणों से चिन्हित किया जाता है। कोर्ट ने कहा कि नाइट्रस ऑक्साइड का उपयोग एनेस्थेटिक एजेंट के रूप में किया जाता है। 99.9% शुद्धता वाले मेडिकल ऑक्सीजन का मुख्य रूप से अस्पतालों में उपयोग किया जाता है। मेडिकल ऑक्सीजन का उपयोग रोगियों के उपचार और रोग या विकार की तीव्रता को कम करने के लिए भी किया जाता है। इसका उपयोग अचानक बीमार पड़ने और स्वास्थ्य की रिकवरी में सहायता के लिए भी किया जाता है। मेडिकल ऑक्सीजन का उपयोग आघात, रक्तस्राव, सदमे, ऐंठन और अन्य स्थितियों में भी किया जाता है। कोर्ट ने उपरोक्त निष्कर्षों के लिए कई मेडिकल पब्लिकेशन और फैसलों का उल्लेख किया। "इसमें कोई संदेह नहीं है कि मेडिकल ऑक्सीजन आईपी और नाइट्रस ऑक्साइड आईपी ऐसी दवाइयां हैं, जिनका उपयोग मनुष्य की किसी भी बीमारी या विकार के उपचार, शमन या रोकथाम के लिए किया जाता है, जो 1940 अधिनियम की धारा 3 (बी) (i) के दायरे में आती हैं। हम मानते हैं कि मेडिकल ऑक्सीजन आईपी और नाइट्रस ऑक्साइड आईपी 1940 अधिनियम की धारा 3 (बी) (i) के दायरे में आती हैं और परिणामस्वरूप 2005 अधिनियम की प्रविष्टि 88 में शामिल की जाती हैं।"
सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन ने सुनवाई के लिए प्रभावी उपायों का सुझाव दिया
सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन (SCAORA ) ने COVID-19 महामारी से जूझने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान मामलों की सहज सुनवाई को बेहतर ढंग से सक्षम करने के सुझावों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक प्रतिनिधित्व दिया है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट में जरूरी मामलों की सुनवाई जारी है। SCAORA देशव्यापी तालाबंदी के दौरान मामलों की सुचारू सुनवाई को और बेहतर ढंग से करने के लिए सुझाव दिए हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की प्रणाली के माध्यम से जरूरी याचिकाओं पर सुनवाई करना जारी रखा है, SCORA ने विशेष रूप से जनहित याचिका और राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों के मामलों की सुनवाई के संबंध में प्रणाली को आगे प्रभावी ढंग से सुनिश्चित करने के लिए कुछ कदमों को आवश्यक माना है जिनमें उनके स्थायी वकीलों का उपस्थित होना आवश्यक है। कोर्ट को बेहतर तरीके से सहायता करने के लिए वकीलों को अनुमति देने के लिए, यह आग्रह किया गया है कि निम्नलिखित सुझावों को तुरंत लागू किया जाए : - जनहित याचिका पर सुनवाई से पहले ऑफिस रिपोर्ट आधिकारिक वेबसाइट पर अपलोड की जाए। यह स्टेट काउंसिल को उन दस्तावेजों के बारे में पुष्टि करने में सक्षम बनाता है जो रिकॉर्ड में लिए गए हैं और इस तरह किसी भी भ्रम या अराजकता से बचते हैं जो हाल ही में जारी हुए हैं। वर्तमान में, ऐसा समय भी आज जाता है जहां एक वकील यह सुनिश्चित नहीं करता है कि इन दस्तावेजों को रिकॉर्ड पर लिया गया है या नहीं, क्योंकि उनके पास ई-फाइलिंग के बाद पता लगाने का कोई तरीका नहीं है। - एक PIL सुनने के लिए समय स्लॉट का आवंटन हो जहां विभिन्न काउंसिल दिखाई देने हैं। चूंकि केवल एक विशेष सुनवाई के लिए सीमित संख्या में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग ( VC) लिंक जारी किए जा सकते हैं, कई स्टेट काउंसिल उसमें भाग लेने में असमर्थ हैं। इसे सुधारने के लिए, यह सुझाव दिया गया है कि सभी संबंधित स्टेट काउंसिल को मामलों के दौरान दो या तीन समय स्लॉट में सुना जा सकता है, और इन स्लॉट्स और संबंधित VC लिंक को कॉज लिस्ट में परिलक्षित किया जाना चाहिए। - नामित व्हाट्सएप समूहों पर वकीलों की उपस्थिति का अंकन हो। चूंकि व्हाट्सएप ग्रुप उन मामलों को समन्वयित करने के लिए बनाया जाता है, जिन्हें किसी विशेष दिन पर सुना जाना है, इसलिए यह सुझाव दिया गया है कि आदेश को रिकॉर्ड करने वाले अधिकारी को दिन की कार्यवाही को रिकॉर्ड करने के लिए उस समूह का हिस्सा बनाया जा सकता है।
वैकल्पिक रूप से, यह सुझाव दिया गया है कि वकील उस समूह के माध्यम से अपनी उपस्थिति को चिह्नित कर सकते हैं और संबंधित अधिकारी को उसी को अग्रेषित कर सकते हैं। - वकीलों के प्रस्तुत होने की पर्चियों की उपस्थिति का अंकन हो जैसा कि वर्तमान में वकीलों / स्थायी काउंसिल की उपस्थिति को चिह्नित करने की प्रणाली स्थापित नहीं की गई है, SCAORA का यह सुझाव है कि व्हाट्सएप ग्रुप जो किसी विशेष दिन की सुनवाई के लिए बनाए गए हैं, उस दिन के मामले से संबंधित अधिकारी उक्त दिन के आदेशों की रिकॉर्डिंग करेंगे, उन्हें भी उक्त ग्रुप में जोड़ा जा सकता है और वकीलों की उपस्थिति को उक्त व्हाट्सएप ग्रुप की वीडियोग्राफी के रूप में चिह्नित किया जा सकता है। विकल्प में, वकील / स्थायी काउंसिल ग्रुप के माध्यम से अपनी उपस्थिति को चिह्नित कर सकते हैं और उसी को संबंधित अधिकारी को अग्रेषित किया जा सकता है।