गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

विवादों से घिरे 2 थानाध्यक्षों पर एसपी का एक्शन, निलंबन के साथ विभागीय कार्रवाई के आदेश

पीलीभीत. कोरोना वायरस (COVID-19) के कहर में पीलीभीत पुलिस (Pilibhit Police) लगातार अपने बेहतरीन काम के लिए सराही जा रही थी. लेकिन पिछले दिनों दो थानेदारों के विवादों में आने के बाद पुलिस की छवि पर असर पड़ा. मामले में अब एसपी अभिषेक दीक्षित ने कड़ी कार्रवाई करते हुए संबंधित दोनों थानेदारों को निलंबित कर दिया है. इसके साथ ही उनके खिलाफ विभागीय जांच के भी आदेश दिए हैं.

चेयरमैन पति को गालियां देते वीडियो वायरल

पहला मामला जहानाबाद थाने का है. यहां तैनात थानाध्यक्ष मनिराम सिंह ने किसी बात को लेकर वहां के मौजूदा चेयरमैन ममता गुप्ता के पति दुर्गा चरण गुप्ता से विवाद हो गया. बात इतनी बढ़ गई कि थानाध्यक्ष महोदय चैयरमैन के घर आ धमके और जमकर घर के बाहर चैयरमैन पति को गालियां दीं. इस पूरी घटना का किसी ने वीडियो बना लिया और वायरल कर दिया.




थाने में मैरिज एनिवर्सरी की पार्टी


वहीं दूसरा मामला बिलसंडा थाने का है. यहां तैनात इंस्पेक्टर हरिशंकर वर्मा ने अपनी मैरिज एनिवर्सरी की पार्टी थाने के अंदर मना डाली. पार्टी इतनी भव्य और बड़ी थी कि थाने मे बाकायदा टेंट लगाकर कुर्सी मेज पर 250 लोगों को शराब औ नॉनवेज का लुत्फ लेते देखा जा सकता था. इस संबंध में एक वीडियो वायरल हुआ था. यही नहीं दूसरे दिन थाने में टेंट का सामान और कुर्सियां गाड़ी में लोड होती दिखाई पड़ी थी.  मामले में टेंट कारोबारी ने बताया था कि थाने से एक दीवानजी आए थे, उन्होने कुछ कुर्सियां, क्रॉकरी और टेंट का सामान थाने मंगाया था.

उधर इन दोनों थानाध्यक्षों के कारनामों की चर्चा जिले भर में हुई. मामले की खबर  जिले के कप्तान अभिषेक दीक्षित तक पहुंची. इन दो थानाध्यक्षों के कारनामों से नाराज जिले के कप्तान अभिषेक दीक्षित ने इन दोनों के खिलाफ कार्रवाई करते हुए निलम्बित कर दिया है. इसके साथ ही दोनों इंस्पेक्टरों के खिलाफ विभागीय जांच के आदेश भी जारी कर दिए हैं


राशन खरीदने निकला बेटा दुल्हन लेकर लौटा

गाजियाबाद. उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद (Ghaziabad) में लॉकडाउन (Lockdown) के दौरान बेटा सब्जी और राशन लेने के लिए निकला था. लेकिन जब वापस लौटा, तो दुल्हन लेकर आया. ये देखते ही मां के होश उड़ गए. मां ने दोनों को घर में प्रवेश करने से रोक दिया. मामला बढ़ा तो सीधे थाने पहुंच गया. जबकि काफी मशक्कत के बाद पुलिस ने मामले में बीच का रास्ता निकाला.

दरअसल, यह बेटा अपनी गर्लफ्रेंड को पत्नी बनाकर ले आया था और मां ने घर में घुसने से मना कर दिया. बस फिर क्या था, मामला साहिबाबाद कोतवाली पहुंच गया. दुल्हन के लिबास में लड़की और उसके साथ लड़का दोनों थाने में मौजूद थे. वहां पर लड़के की मां भी आई और खुले शब्दों में कह दिया कि लॉकडाउन का उल्लंघन करने वाले बेटे को घर में नहीं घुसने दूंगी. बेटा राशन लेने गया था और लड़की ब्याह कर ले आया.
शादी होने के सबूत नहीं: पुलिस
पुलिस का कहना है कि शादी हुई भी है या नहीं, इस बात का भी कोई सबूत नहीं है. जब लड़के से बात की गई तो उसका कहना है कि मंदिर में शादी हुई है. हालांकि वह इसका कोई सबूत पेश नहीं कर सका. वहीं वह एक महीने पहले हरिद्वार में शादी होने की बात कह रहा है लेकिन इसका भी वह कोई सबूत नहीं दे सका है. पूरा मामला थाने में पुलिस के लिए भी सिरदर्द बन गया. काफी देर तक सवाल-जवाब के बाद फिलहाल पुलिस ने लड़के और लड़की को समझा दिया है.



मां ने किया साफ लॉकडाउन तोड़ा है, घर में नहीं देंगे प्रवेश
लड़का अपनी नई नवेली दुल्हन को लेकर किराए के मकान में चला गया है. वहीं लड़के की मां ने फिलहाल साफ शब्दों में कह दिया है कि लॉकडाउन खत्म होने से पहले घर आने की जरूरत नहीं है.


लॉकडाउन के दौरान पूरा वेतन देने के ख़िलाफ़ 11 एमएसएमई गए सुप्रीम कोर्ट, कहा- पीएम केयर्स फंड से 70% सब्सिडी दी जाए

सुप्रीम कोर्ट में एक और याचिका दायर कर सरकार की उस एडवाइज़री को चुनौती दी गई है जिसमें कहा गया था कि निजी नियोक्ता अपने कर्मचारियों को काम से नहीं निकालें और देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान उन्हें पूरा वेतन दें। सचिव (श्रम एवं रोज़गार) ने 20 मार्च को जो एडवाइज़री जारी की और गृह मंत्रालय ने 29 मार्च को जो अधिसूचना जारी की उसके ख़िलाफ़ 11 एमएसएमई कंपनियों ने यह याचिका दायर की है। याचिका में कहा गया है कि ये एडवाइज़री संविधान के अनुच्छेद 14 और 19(1) का उल्लंघन करती हैं। याचिका में कहा गया है कि निजी कंपनियों को अपने कर्मचारियों को 70% वेतन देने से छूट दी



जाए और यह राशि सरकार कर्मचारी राज्य बीमा निगम या पीएम केयर्स फंड से दी जाए। याचिकाकर्ताओं के वकील जीतेंदर गुप्ता ने कहा कि सरकार को निजी कंपनियों पर किसी भी तरह का वित्तीय भार लादने का अधिकार नहीं है और इसके लिए वह आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 का सहारा नहीं ले सकती। यह कहा गया है कि सरकार DMA की धारा 46, 47, 65 और 66 के तहत अपने अधिकारों का प्रयोग कर सकती है और आपातकाल से निपटने के लिए संसाधन जुटा सकती है। यह ज़िम्मेदारी सरकार की है और इसे निजी क्षेत्र पर नहीं लादा जा सकता। याचिका में कहा गया कि "याचिकाकर्ताओं को अपने कर्मचारियों की संख्या में कटौती करने से रोका जा रहा है, विशेषकर अस्थाई और ठेके या प्रवासी मज़दूरों के संदर्भ में। याचिकाकर्ताओं को इन अधिसूचनाओं के कारण तीव्र वित्तीय और मानसिक तनाव झेलना पड़ रहा है। इन अधिसूचनाओं का प्रभाव ऐसा है कि विशेषकर एमएसएमई क्षेत्र के उद्योग जिसमें कि स्थायित्व था, अब इसकी वजह से उन्हें दिवालिया होने और व्यवसाय से उनका नियंत्रण समाप्त करने के लिए बाध्य किया जा रहा है।" याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि ये अधिसूचनाएं मनमानी, ग़ैरक़ानूनी और अतार्किक हैं और इन्हें संविधान के अनुच्छेद 14 और 19(1) के तहत ग़ैरक़ानूनी माना जाए। इन अधिसूचनाओं के ख़िलाफ़ महाराष्ट्र, पंजाब और कर्नाटक में भी याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं।



कर्नाटक हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से पूछा,निखिल कुमारस्वामी की शादी के लिए जारी किए कितने वाहन पास?

कर्नाटक हाईकोर्ट ने मंगलवार को राज्य सरकार से कहा कि वह लॉकडाउन के दौरान वाहनों को पास देने पर नीति को रिकॉर्ड करे और बताए कितने लोगों को पूर्व मुख्यमंत्री एच डी कुमारस्वामी के बेटे निखिल कुमारस्वामी की शादी में शामिल होने की



अनुमति दी गई थी। 21 अप्रैल को अदालत ने राज्य सरकार से पूछा था कि क्या रामनगरा जिले के कुमारस्वामी के फार्म हाउस में आयोजित शादी के दौरान सामाजिक दूरी बनाए रहने के नियम का पालन किया गया था। अधिवक्ता गीता मिश्रा द्वारा लॉकडाउन के दौरान सामाजिक दूरी के उल्लंघन की अदालत में शिकायत करने के बाद यह निर्देश दिया गया। मुख्य न्यायाधीश अभय ओका और न्यायमूर्ति बीवी नागरत्न की खंडपीठ ने कहा कि हाईकोर्ट को शादी में सामाजिक दूरी के उल्लंघन और वाहन पास देने पर कर्नाटक के भीतर और बाहर विभिन्न व्यक्तियों के ईमेल के माध्यम से कई अर्ज़ियां प्राप्त हुई थीं। पीठ ने टिप्पणी की, "क्या सरकार की यह नीति है कि लॉकडाउन के दौरान शादी के लिए पास दिया जाएं? अगर हां तो सभी लोग आवेदन करेंगे।" कोर्ट ने अब इस मामले की सुनवाई 5 मई को आगे के लिए टाल दी है।



पत्नी के वैवाहिक घर में रहने के अधिकार को वैधानिक योजना के तहत बिल्डर या विकास प्राधिकरण के खिलाफ लागू नहीं किया जा सकता : सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि जब एक बिल्डर ने पुनर्विकास वाले हिस्से में मूल मालिकों को समायोजित करके अपने दायित्व का निर्वहन किया है, तो उस परिवार में शादी करने वाली महिला को आवास और क्षेत्र विकास क़ानून के प्रासंगिक प्रावधानों का हवाला देते हुए वैवाहिक घर के अधिकार को लागू करने के लिए रिट अधिकार क्षेत्र को आमंत्रित करने का अधिकार नहीं होगा, यदि उसका पति उसे आवंटित हिस्से में रहने की अनुमति नहीं देता है। पीठ ने कहा कि न तो महाराष्ट्र क्षेत्र विकास प्राधिकरण और न ही बिल्डर के पास उसके पुनर्वास के लिए कोई कानूनी बाध्यता हो सकती है। जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की एक पीठ ने एक महिला द्वारा दायर अपील का फैसला किया था, जिसमें महाराष्ट्र हाउसिंग एंड एरिया डेवलपमेंट एक्ट 1976 के तहत अपने पति को आवंटित घरों में रहने का अधिकार मांगा गया था। मामले के तथ्य अपीलकर्ता का अपने पति और ससुराल वालों के साथ तनावपूर्ण संबंध था। मकान जो वैवाहिक घर के तौर पर सवालों में था, को महाराष्ट्र हाउसिंग एंड एरिया डेवलपमेंट एक्ट, 1976 के तहत बिल्डरों की एक फर्म द्वारा ध्वस्त और पुनर्विकास किया गया था। पुनर्विकास की अवधि के दौरान, उक्त अधिनियम के प्रावधानों के तहत अनुमोदित एक योजना के तहत, रहने वालों को ट्रांजिट या अस्थायी आवास में स्थानांतरित करना आवश्यक था। अपीलार्थी का तर्क यह है कि पुनर्विकास की ऐसी कवायद 1976 के अधिनियम की धारा 79 के तहत बनाई गई एक वैधानिक योजना के अनुसरण में की गई थी जिसमें रहने वालों के पुनर्वास के प्रावधान हैं। उसकी शादी के बाद अपीलकर्ता के परिवार के सदस्यों, जिसमें उसके पति और सास शामिल थे, आवास में स्थानांतरित हो गए थे। अपीलार्थी-रिट याचिकाकर्ता अपने दो नाबालिग बेटों के साथ मूल इमारत में रही। चूंकि अपीलार्थी ने पुराने भवन में निवास करना जारी रखा था, म्हाडा अधिकारियों ने उस पर 1976 अधिनियम की धारा 95-ए के तहत एक नोटिस जारी किया, जिसमें कहा गया कि जहां भवन का मालिक भवन के पुनर्निर्माण के लिए प्रस्ताव प्रस्तुत करता है, वहां परिसर को खाली करने के लिए सभी कब्जाधारियों के लिए बाध्यकारी होगा। बेदखली की सूचना के बाद, वह दूसरी जगह चली गई। बाद में उन्होंने रिट याचिका के तहत बॉम्बे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और क्षेत्र के विकास के बाद म्हाडा द्वारा अपने पति को आवंटित मकानों में रहने के लिए दिशा-निर्देश मांगे। हाईकोर्ट ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि अनुच्छेद 226 के तहत अधिकार लागू नहीं किए जा सकते। सुप्रीम कोर्ट के निष्कर्ष बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए अपीलकर्ता सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पक्षकार के रूप में आए। उसका मामला यह था कि चूंकि उसे 2000 में निष्कासन नोटिस द्वारा म्हाडा द्वारा निर्वासित किया गया था, इसलिए नए आवंटित वैवाहिक घर में उसे फिर से घर देने के लिए वो बाध्य है। इससे असहमत, पीठ ने कहा : "लेकिन हमारी राय में, जब एक बिल्डर ने इस योजना के अनुसार पुनर्विकसित हिस्से में मूल मालिकों को समायोजित करके अपने दायित्व का निर्वहन किया है, तो उस परिवार में शादी करने वाली महिला उक्त



क़ानून के प्रावधानों का हवाला देते हुए वैवाहिक घर पर अधिकार के लिए उच्च न्यायालय के रिट क्षेत्राधिकार को लागू करने के लिए हकदार नहीं होगी, यदि उसका पति उसे आवंटित आवास में निवास करने की अनुमति नहीं देता है। जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ ने कहा, "उसके पास उस संपत्ति के टाइटल या ब्याज पर कोई स्वतंत्र दावा नहीं है। उसके वैवाहिक घर में रहने के अधिकार के उसके दावे को उसके पति के वैधानिक अधिकार के लिए संपार्श्विक के रूप में पेश किया जाना चाहिए। नए भवन में पुनर्वास किया गया लेकिन उसके वैवाहिक घर में निवास करने का अधिकार उससे अलग है और उक्त अधिनियम के तहत वैधानिक योजना से स्वतंत्र है।" कोर्ट ने कहा कि वैवाहिक घर में रहने का उसका अधिकार 1976 के अधिनियम से नहीं निकला था; इस तरह के अधिकारों को कानून की अन्य प्रक्रियाओं के माध्यम से लागू किया जाना चाहिए। "न तो म्हाडा, न ही बिल्डर के पास उसे फिर से स्थापित करने के लिए कोई और कानूनी दायित्व हो सकता है .. वह पुनर्विकास योजना के रचनात्मक लाभार्थी के रूप में अपना दावा ठोक रही है। लेकिन हमारी राय है कि वह जिस अधिकार को लागू करने की मांग कर रही है,जो उस सेट से निकलती है जिसमें उन घटनाओं के आधार पर जिनके पति पुनर्वास का दावा कर सकते हैं। वास्तव में ये मामला फैमिली लॉ के तहत एक स्वतंत्र कानूनी सिद्धांत के लिए अलग से हो सकता है। हम स्वीकार करते हैं कि वह 1976 अधिनियम की धारा 2 (25) के तहत एक अधिभोगी थी, लेकिन इस तरह के अधिभोग की स्थिति संपत्ति के हिस्से के मालिक के रूप में उसके पति के स्वतंत्र अधिकार पर निर्भर थी। उसकी वैवाहिक स्थिति से निकलने वाले उसके अधिकार को वैधानिक योजना के तहत उसके पुनर्वास के अधिकार से अलग नहीं किया जा सकता है। उसके वैवाहिक घर में रहने का अधिकार 1976 के अधिनियम से नहीं है। " शीर्ष अदालत ने कहा कि यद्यपि उसे एक कब्जाधारी के रूप में घर से हटाया गया, फिर भी उसके पुनर्वास का दावा पत्नी के रूप में उसकी स्थिति पर आधारित है। इसके अनुसार, इस तरह के दावे को सिविल कोर्ट या फैमिली कोर्ट या किसी अन्य फोरम द्वारा देखा जा सकता है। अपीलार्थी के ऐसे अधिकार को उसके पति के अधिकार के साथ भवन सुधार और पुनर्निर्माण कानून के तहत अलग नहीं किया जा सकता है, जिस पारिवारिक संपत्ति, जिसका वह मालिक है, का पुनर्निर्माण किया गया है, पीठ ने कहा। शीर्ष अदालत ने माना कि एक विवाहित महिला अपने पति के साथ परिवार के बाकी सदस्यों के साथ, एक संयुक्त संपत्ति के मामले में, अपनी शादी के बाद, अपने विवाह के बाद रहने की हकदार है। यदि वह अपने पति और बच्चों के साथ एक स्वतंत्र परिवार इकाई के रूप में आवास में रहती है, तो वैवाहिक घर वह आवासीय इकाई होगी। यह अधिकार उसके अधिकार में पत्नी के रूप में अंतर्निहित है। यह वैधानिक रूप से लागू होने वाली स्थितियों में हिंदू दत्तक और रखरखाव अधिनियम, 1956 की धारा 18 के प्रावधानों के तहत निहित है। घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 से महिलाओं की सुरक्षा ने इस क़ानून की धारा 2 (ओं) के संदर्भ में "साझा घराने" की अवधारणा को मान्यता दी है। 2005 अधिनियम की धारा 3 (iv) के तहत अभिव्यक्ति "आर्थिक दुर्व्यवहार" के दायरे के भीतर, उक्त अधिनियम के तहत एक पीड़ित महिला के अधिकार को हराने के लिए एक अचल संपत्ति को अलग करना घरेलू हिंसा का गठन कर सकता है। उक्त अधिनियम की धारा 19 के तहत क्षेत्राधिकार रखने वाले मजिस्ट्रेट को घरेलू हिंसा के शिकार व्यक्ति को उसके साझा घर से निकाले जाने पर आवास का आदेश पारित करने का अधिकार है। लेकिन एक पति को अपनी पत्नी को एक अलग घर में रहने के लिए मजबूर करने के लिए, जो उसका वैवाहिक घर नहीं है, उचित कानूनी मंच से एक आदेश आवश्यक होगा। अपने वैवाहिक घर से पत्नी को जबरन बेघर नहीं किया जा सकता है। हालांकि, इन उपायों का लाभ अन्य कानूनी कार्यवाही में लिया जाना चाहिए, न कि किसी बिल्डर के खिलाफ रिट याचिका में। हालांकि, न्यायालय ने वैकल्पिक आवास की उसकी मांग को सुरक्षित करने के लिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत कुछ दिशा-निर्देश पारित किए, और अपीलार्थी को अपने पति के साथ अपने वैवाहिक घर में रहने का अधिकार स्थापित करने के लिए उचित कानूनी कार्यवाही शुरू करने की स्वतंत्रता प्रदान की।



दलित व्यक्ति से दुर्व्यवहार व उसका उत्पीड़न करने की शिकायत पर FIR दर्ज न करने वाले पुलिसकर्मियों के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट ने दिए कार्रवाई के निर्देश

दिल्ली हाईकोर्ट ने एससी/ एसटी (अत्याचार की रोकथाम) अधिनियम की धारा 4 के तहत उन पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने का निर्देश दिया है, जिन्होंने एक दलित व्यक्ति से हुए दुर्व्यवहार और उसके उत्पीड़न की शिकायत मिलने के बाद भी जानबूझकर एफआईआर दर्ज नहीं की थी। ऐसे पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने के लिए ट्रायल कोर्ट को निर्देश देते हुए न्यायमूर्ति सुरेश कैत की एकल पीठ ने कहा कि पीड़ित दलित व्यक्ति न्याय पाने के लिए दर-दर भटकता रहा। इस मामले ने दिल्ली पुलिस के बहरेपन की पराकाष्ठा का उदाहरण दिया है, विशेष रूप से संबंधित थाने के एस.एच.ओ. के मामले में। वर्तमान आपराधिक अपील एससी और एसटी (अत्याचार की रोकथाम ) संशोधन अधिनियम, 2015 की धारा 14 के साथ ही आपराधिक प्रक्रिया दंड संहिता की धारा 482 के तहत दायर की गई थी, जिसमें पांच जून 2018 को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, साकेत कोर्ट द्वारा पारित एक आदेश को रद्द करने की मांग की गई थी। एक निपुण अंतर्राष्ट्रीय घुड़सवार अपीलकर्ता ने कोर्ट का रुख किया करते हुए बताया कि उसे लगातार परेशान किया गया और आपराधिक धमकी दी गई क्योंकि उसका संबंध अनुसूचित जाति से है। उसने बताया कि प्रतिवादी विशेषाधिकार प्राप्त सामाजिक-आर्थिक और अभिजात वर्ग की पृष्ठभूमि से संबंधित थे। उसे जातिवादी शब्द कहते हुए शारीरिक रूप से प्रत्याड़ित किया,धमकाया और उससे गाली-गलौच किया। प्रतिवादियों ने एक व्हाट्सएप ग्रुप भी बनाया और याचिकाकर्ता पर एसिड हमले की साजिश भी रची। वहीं याचिकाकर्ता के प्रशिक्षक और इस मामले में उसके वकील कपिल मोदी को भी यातना देने और मारने के लिए भी योजना बनाई। 22 अप्रैल 2018 को, कपिल मोदी ने फतेहपुर बेरी पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज की। इस शिकायत में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि ''मेरे अनुसूचित जाति के छात्र प्रशांत (उर्फ प्रवीण कुमार) पर एसिड अटैक की योजना'' बनाई गई है। हालांकि पुलिस ने उक्त शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं की। इसके बाद एक प्रतिवादी ने अपीलकर्ता को फोन किया और शिकायत दर्ज करने के लिए उसे धमकाया। साथ ही कहा कि वह याचिकाकर्ता की पिटाई पुलिस से करवा देगा। अपनी जान और सुरक्षा के डर से अपीलकर्ता 29 अप्रैल 18 को उसी फतेहपुर बेरी पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराने गया। लेकिन पुलिस अधिकारियों ने उसकी शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दिया और उसे वापिस भेज दिया। अत्यधिक संकट में अपीलकर्ता ने ट्वीट करके प्रधानमंत्री और दिल्ली पुलिस के आयुक्त से न्याय दिलाने में मदद की गुहार लगाई। 11 मई 2018 को अपीलार्थी को पुलिस आयुक्त से एक ई-मेल प्राप्त हुआ,जिसमें विशेष पुलिस आयुक्त (दक्षिणी रेंज) को निर्देश दिया गया था कि वह अपीलकर्ता की शिकायत पर आवश्यक कार्रवाई करे। पुलिस और अन्य अधिकारियों की निष्क्रियता के कारण 14 मई 2018 को अपीलकर्ता ने साकेत कोर्ट में मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के समक्ष सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत एक आवेदन दायर किया। अपीलकर्ता के दुःख को बढ़ाते हुए उक्त मजिस्ट्रेट ने पुलिस को एक्शन टेकन रिपोर्ट दायर करने का निर्देश देते हुए मामले की सुनवाई दो माह के लिए टाल दी। इस आदेश से परेशान होकर अपीलार्थी ने एक आवेदन दिया ओर कहा कि उसके मामले में जल्द सुनवाई की तारीख दी जाए परंतु मजिस्ट्रेट ने मौखिक रूप से उस आवेदन को खारिज कर दिया। इसके बाद अपीलकर्ता ने पुलिस आयुक्त के साथ-साथ भारत के मुख्य न्यायाधीश को भी पत्र लिखा कि कैसे अधीनस्थ अदालतें दलितों को न्याय प्रदान करने की अनदेखी कर रही हैं। उसके बाद अपीलकर्ता ने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के समक्ष शिकायत दायर की। साथ ही बताया कि पुलिस और मजिस्ट्रेट ने एससी/ एसटी अधिनियम की धारा 4 के तहत अपना कर्तव्य नहीं निभाया है। इसके बाद 05 जून 2018 को संबंधित एएसजे ने आवेदक के आवेदन को एससी/ एसटी अधिनियम की धारा 4 के तहत खारिज कर दिया। अपीलकर्ता के लिए पेश होते हुए कपिल मोदी ने तर्क दिया कि संबंधित एएसजे ने एससी और एसटी अधिनियम की धारा 5 और 4 रिड विद धारा 15 ए (8) (सी) रिड विद रूल्स 1995 के रूल 5 व 7 के तहत निर्धारित अपने कर्तव्यों की पूरी तरह से उपेक्षा व अनादर किया है। वहीं सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने जो निर्देश जारी किए थे,उनका भी जानबूझकर पालन न करते हुए अनादर किया गया। उक्त अधिनियम की धारा 4 (2) (बी) में कहा गया है कि-''यह लोक सेवक का कर्तव्य है कि वह इस अधिनियम और अन्य संबंधित प्रावधानों के तहत शिकायत या पहली सूचना रिपोर्ट दर्ज करे और इस अधिनियम के उपयुक्त धाराओं के तहत इसे पंजीकृत करे।'' उन्होंने यह भी बताया कि निचली अदालत के दोनों पीठासीन अधिकारी न्यायिक कर्तव्यों का विवेकपूर्ण ढंग से निर्वहन करने में विफल रहे हैं। न ही वह कानून के इरादे के प्रति संवेदनशील थे और इसलिए गलत आदेश पारित कर दिए। अपीलकर्ता की तरफ से पेश हुए कपिल मोदी के प्रतिनिधित्व पर आपत्ति करते हुए राज्य के वकील ने तर्क दिया कि अपीलकर्ता ने कभी भी फतेहपुर बेरी पुलिस स्टेशन में कोई शिकायत दर्ज नहीं की। बल्कि 31 मई 2018 को आयुक्त कार्यालय से शिकायत आई थी। राज्य ने आगे प्रस्तुत किया कि शिकायत निराधार थी क्योंकि एससी/ एसटी अधिनियम के तहत प्रथम दृष्टया मामला नहीं बन रहा था। वहीं उस शिकायत को देखकर ऐसा लग रहा था कि वह प्रतिवादियों द्वारा लगाए गए आरोपों का मुकाबला करने के लिए बाद में बचाव के लिए दायर की गई थी। अंत में राज्य की तरफ से यह तर्क दिया गया था कि वर्तमान मामले में जिन पुलिस अधिकारियों के नाम लिए गए हैं उन्होंने जानबूझर उपेक्षा नहीं की थी। क्योंकि कथित घटना के समय सुप्रीम कोर्ट के निर्देश थे कि अत्याचार पर रोकथाम के लिए एसटी/ एससी अधिनियम के तहत केस दर्ज करने से पहले जांच की जाए। अपने आदेश की शुरुआत में ही अदालत ने धारा 15 के तहत वर्तमान मामले में कपिल मोदी की उपस्थिति पर आपत्ति करने वाले तर्क को खारिज कर दिया। साथ ही कहा कि दलित मानवाधिकार पर राष्ट्रीय अभियान द्वारा जारी एक पत्र में कपिल मोदी के योगदान को मान्यता दी है। साथ ही आईडीडीएल प्रतियोगिता मंच के माध्यम से दलितों के लिए ओलंपिक स्पोर्ट ऑफ ड्रेसेज को भी सुलभ बनाने में उनके महत्वपूर्ण योगदान को इंटरनेशनल ड्रेसेज डेवलपमेंट लीग ने भी सराहा है। अदालत ने कहा कि- 'उक्त पत्र में आगे कहा गया है कि भारत में दलित पुरुषों और लड़कों को घोड़े की सवारी करने के लिए पीटा जाता है और उनकी हत्या कर दी जाती है। दलित घुड़सवारों के लिए समानता के संवैधानिक लक्ष्य को प्राप्त करने में श्री कपिल मोदी और आईडीडीएल के योगदान को एनसीडीएचआर ने भी बहुत सराहा है।' इसलिए अदालत ने वर्तमान मामले में अपीलकर्ता का प्रतिनिधित्व करने के लिए श्री मोदी को सक्षम पाया है। मामले के तथ्यों को ध्यान में रखने के बाद, अदालत ने कहा कि- 'अपीलकर्ता के जीवन को एक खतरा आने वाला था। अपने जीवन के इस खतरे की उचित आशंका के कारण उसने अपनी मानसिक शांति खो दी और कथित आरोपी व्यक्तियों के एसिड हमले के डर से वह पूरी तरह से परेशान हो गया था। इसके अलावा यह भी एक उचित और प्रमाणिम विश्वास था कि इलेक्ट्रॉनिक सबूत नष्ट किए जा सकते हैं या उनके साथ छेड़छाड़ की जा सकती है।' अदालत ने यह भी कहा कि सुभाष काशीनाथ महाजन के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, प्रारंभिक जांच 7 दिनों के भीतर पूरी की जानी चाहिए। जबकि वर्तमान मामले में 59 दिनों के बाद एसीपी ने 18 जून 2018 को अपनी जांच रिपोर्ट पेश की थी। इसलिए अदालत ने कहा कि एससी/ एसटी अधिनियम के तहत अपराधों के लिए एफआईआर दर्ज करने में प्रतिबंध था परंतु अन्य अपराधों के लिए एफआईआर दर्ज करने के लिए कोई प्रतिबंध या रोक नहीं थी। अदालत ने यह भी कहा कि एससी/ एसटी अधिनियम के तहत आने वाले आरोपों के लिए पुलिस स्टेशन फतेहपुर बेरी का एसएचओ एससी/एसटी एक्ट की धारा 4 (1) और 4 (2) के तहत अपने कर्तव्य को निभाने और शिकायत पर विचार करने के लिए बाध्य था। हालांकि वह ऐसा करने में विफल रहा। इसके अलावा निचली अदालतों ने भी उपरोक्त तथ्यों की अनदेखी की है।



केंद्र ने लॉकडाउन में फंसे हुए प्रवासी मज़दूरों, छात्रों, तीर्थयात्रियों, पर्यटकों आदि को एक राज्य से दूसरे राज्य में परिवहन की सशर्त दी अनुमति

गृह मंत्रालय ने बुधवार को एक आदेश जारी किया जिसमें लॉकडाउन में फंसे हुए प्रवासी मज़दूरों, छात्रों, तीर्थयात्रियों, पर्यटकों आदि के एक राज्य से दूसरे राज्य में परिवहन की अनुमति दी गई, जिनमें COVID-19 के कोई लक्षण नहीं पाए जाते हों। आपदा प्रबंधन अधिनियम की धारा 10 (2) (एल) के तहत शक्तियों को लागू करने वाले गृह सचिव द्वारा जारी इस आदेश में उस संबंध में विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं। लॉकडाउन के कारण विभिन्न स्थानों पर फंसे प्रवासी श्रमिकों, छात्रों, तीर्थयात्रियों, पर्यटकों और अन्य व्यक्तियों को निम्न शर्तोंं पर आगे बढ़ने की अनुमति दी जाएगी:



1. सभी राज्यों / केंद्र शासित प्रदेशों को नोडल अधिकारियों को नामित करना चाहिए और ऐसे फंसे व्यक्तियों को प्राप्त करने और भेजने के लिए मानक प्रोटोकॉल विकसित करना चाहिए। नोडल अधिकारियों को अपने राज्यों / संघ राज्य क्षेत्रों के भीतर फंसे व्यक्तियों को भी पंजीकृत करना चाहिए।


2. यदि फंसे हुए व्यक्तियों का एक समूह एक राज्य / केन्द्र शासित प्रदेश और दूसरे राज्य / केंद्रशासित प्रदेश के बीच स्थानांतरित होना चाहता है, तो भेजने और प्राप्त करने वाले राज्य एक-दूसरे से परामर्श कर सकते हैं और सड़क के रास्ते से उन्हें भेजने के लिए सहमत हो सकते हैं। आगे बढ़ने वाले व्यक्तियों की जांच की जाएगी और यदि विषम व्यक्ति पाया गया तो उसे आगे बढ़ने नहीं दिया जाएगा।


3. व्यक्तियों के समूह के परिवहन के लिए बसों का उपयोग किया जाएगा। बसों को सुरक्षित किया जाएगा और बैठने में सुरक्षित सामाजिक दूरी, सुरक्षा मानदंडों का पालन किया जाएगा।


4. रास्ते में आने वाले राज्य / केंद्र शासित प्रदेश ऐसे व्यक्तियों को प्राप्त राज्य / संघ राज्य क्षेत्र में जाने की अनुमति देंगे।


5. अपने गंतव्य पर पहुंचने पर, ऐसे व्यक्तियों की जांच स्थानीय स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा की जाएगी और उन्हें घर में क्वारंटाइन में रखा जाएगा, जब तक कि जांच के लिए व्यक्तियों को एक साथ क्वारंटाइन में रखने की आवश्यकता न हो। समय-समय पर उनकी स्वास्थ्य जांच की जाएगी। आदेश में कहा गया है कि ऐसे व्यक्तियों को उनके स्वास्थ्य की स्थिति की निगरानी और ट्रैकिंग के लिए आरोग्य सेतु ऐप का उपयोग करने के लिए "प्रोत्साहित" किया जाएगा। सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने COVID-19 परीक्षण में नेगेटिव आए प्रवासी मज़दूरों को उनके मूल स्थान वापस लौटने के संबंध में निर्देश देने की मांग वाली एक जनहित याचिका पर केंद्र का जवाब मांगा था।



सोमवार, 27 अप्रैल 2020

विदेशों से भारतीय नागरिकों / ओसीआई कार्ड धारकों के शव COVID-19 दिशा-निर्देशों के पालन के अधीन आने की अनुमति: गृह मंत्रालय

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने ब्यूरो ऑफ इमिग्रेशन को स्पष्ट किया कि विदेशों से भारतीय नागरिकों / ओसीआई कार्ड धारकों के शवों और नश्वर अवशेषों के आगमन की अनुमति है, जो COVID-19 प्रबंधन के संबंध में विभिन्न विभागों द्वारा जारी दिशा-निर्देशों / निर्देशों के पालन के अधीन है। कार्यालय ज्ञापन में यह भी कहा गया है कि स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी की गई मानक प्रक्रिया का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए। उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल कर केंद्र सरकार को निर्देश देने की मांग की गई है कि COVID-19 के संक्रमण के कारण मौत होने पर विदेशों में रखे गए भारतीय नागरिकों के शवों को वापस लाने के लिए उचित कदम उठाए जाएं। ये याचिका एक एनजीओ, प्रवासी लीगल सेल ने दाखिल की है।


याचिकाकर्ता एनजीओ ने कहा है कि इस महत्वपूर्ण स्तर पर, भारत में अधिकारियों द्वारा यहां अनापत्ति प्रमाण पत्र की मांग करने की असामान्य प्रक्रिया, पूरे प्रत्यावर्तन को एक थकाऊ प्रक्रिया बनाती है, इसके परिणामस्वरूप, कई भारतीयों के मृत शरीर विशेष रूप से बहरीन, ओमान, कुवैत, यूएई और सऊदी अरब जैसे देशों के हवाई अड्डों पर छोड़ दिए गए हैं। फरवरी में, दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर इसी तरह की याचिका का जवाब देते हुए, भारत संघ ने दिल्ली उच्च न्यायालय को सूचित किया कि नश्वर अवशेषों के प्रत्यावर्तन के लिए 48 घंटे की अग्रिम सूचना का नियम अनिवार्य नहीं है और आवेदक संबंधित अधिकारियों को अपेक्षित दस्तावेजों की आपूर्ति करता है तो यदि यह छूट दी जा सकती है। नियम कहता है, "हवाई परिवहन सेवा मृतक के शरीर या मानव अवशेषों या शवों के आने की अग्रिम सूचना हवाई अड्डे के स्वास्थ्य अधिकारी को कम से कम 48 घंटे पहले देगी।" सरकार ने हाईकोर्ट को बताया कि 48 घंटे की अग्रिम सूचना अनिवार्य नहीं है, बशर्ते आवेदक संबंधित स्वास्थ्य कार्यालय को नीचे दिए गए चार दस्तावेज़ प्रदान करता है: संबंधित देश के स्वास्थ्य विभाग द्वारा मृत्यु प्रमाण पत्र- स्पष्ट रूप से मृत्यु के कारण का उल्लेख करना; प्रमाणिक प्रमाण पत्र; संबंधित देश के भारतीय उच्चायोग से एनओसी; पासपोर्ट की केंसल कॉपी।


जन्म दिन के उपलक्ष्य मे किये बृक्षा रोपण

आज आधुनिक युग मे जहा आज के नव जवान प्रकृत के नियमो का पूरी तरह से उलंघन करते देखे जाते है वही समाज सेवा मे लगा युवा पत्रकार धीरज कुमार समय समय पर काबिले तारीफ का काम करे देखे जाते है। प्राप्त सूचना के अनुसार थाना सिकरारा अंतर्गत ग्राम सभा बढ़ौली निवासी युवा पत्रकार धीरज कुमार का आज जन्मदिन है वैसे आज के युवा जन्मदिन पर महज सैर



सपाटा करते देखे जाते है मगर इस युवा ने अपने जन्मदिन पर खाली जगह पर बृक्षा रोपण का कार्य किया, अमरूद का पेड लगाने के एक सवाल पर धीरज ने बताया कि अमरूद आयुर्वेद का अनमोल धरोहर है जिसमे विटामिन सी की भरपूर मात्रा मिलती है अमरूद के साथ धीरज ने कई प्रजातियो का पौधा रोपण किया,धीरज के जन्मदिन के उपलक्ष्य मे उनके तमाम मित्रो ने मोबाइल के जरिये बधाई दिये। 


सरपंच ने निकाला तो गोद में मासूम को लेकर पैदल ही चल पड़े प्रवासी मजदूर

चरखी दादरी. छोटे-छोटे बच्चे, उनके पैरों में चप्पल नहीं और मासूम को गोद में लिए बेआसरा श्रमिक परिवार घर पहुंचने की चाह में पैदल ही निकल पड़े. लॉकडाउन (Lockdown) के दौरान एक गांव के सरपंच ने श्रमिक परिवार को घर से निकाल दिया, तो सभी सदस्य सिर पर सामान लेकर पैदल ही चल पड़े. पैदल चले रहे श्रमिकों को देखकर कुछ लोगों ने प्रशासन को अवगत करवाया और श्रमिक परिवारों के लिए शेल्टर होम में व्यवस्था करवाने की मांग की. हरकत में आए स्थानीय प्रशासन ने श्रमिकों को शेल्टर होम में शरण दिलवाई.

बता दें कि उत्तर प्रदेश से हरियाणा में दो पैसे कमाने के लिए कई श्रमिक परिवार आए थे. कोरोना वायरस के संक्रमण को लेकर लागू लॉकडाउन में फंसने पर वे एक गांव में रुके थे. राशन-पानी समाप्त होने पर सरपंच से न्याय की गुहार लगाई. कुछ दिन तो राशन-पानी मिला. बाद में उन्हें यह कहकर निकाल दिया गया कि श्रमिक परिवारों के लिए प्रशासन द्वारा वाहनों का प्रबंध करके भेजा जा रहा है. ऐसे में श्रमिक परिवारों के करीब दो दर्जन सदस्य सामान सिर पर लादकर पैदल ही निकल पड़े. चरखी दादरी के समीप करीब 15 किलोमीटर का सफर तय करने के बाद सड़क पर ही रुके, तो स्थानीय लोगों ने प्रशासन को अवगत करवाया.

यूपी से आए हैं सभी
श्रमिक रामभूल, राजू, पार्वती इत्यादि ने बताया कि वे यहां पर पैसे कमाने के लिए यूपी से आए थे. लॉकडाउन के कारण काम-धंधा बंद हो गया. एक गांव में रुक कर सरपंच से राशन-पानी लिया. अब उन्हें यह कहकर भेज दिया कि प्रशासन ने वाहनों का प्रबंध करके घर भेजा जा रहा है. कोई साधन नहीं मिला तो पैदल ही निकल पड़े.


प्रशासन को दी जानकारी
इन लोगों ने बताया कि वे करीब 30 लोग हैं, जिनमें बच्चे व महिलाएं भी शामिल हैं. अब उन्हें पता ही नहीं कि साधन कहां मिलेंगे और वे कब घर पहुंच पाएंगे. वहीं, समाजसेवी जितेंद्र जटासरा ने श्रमिकों के पैदल चलने की जानकारी स्थानीय प्रशासन को दी. उन्होंने बताया कि श्रमिकों को गांव से बिना वाहन निकालना गलत है. ऐसे में प्रशासन को कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए.


बुजुर्गों के लिए हल्दी और मिर्च पिसवाएगी , टूटा चश्मा भी ठीक करवाएगी-पुलिस

राजगढ़. कोरोना वायरस (COVID-19) को लेकर लागू लॉकडाउन (Lockdown) के बीच पुलिस आम लोगों की मदद के लिए हरसंभव प्रयास करने में जुटी है. विभिन्न राज्यों से पुलिस के जवानों की ऐसी खबरें रोज आ रही हैं. इसी क्रम में मध्य प्रदेश के राजगढ़ की पुलिस ने अनोखा कदम उठाया है. राजगढ़ पुलिस (Rajgarh Police) ने लॉकडाउन के दौरान आम लोगों के साथ-साथ बुजुर्ग नागरिकों (Senior Citizens) का खास ख्याल रखने को योजना बनाई है."वरिष्ठ नागरिक पुलिस पंचायत" के तहत



जिले के पुलिस कप्तान प्रदीप शर्मा ने बुजुर्गों की मदद के लिए अलग से स्टाफ की तैनाती की है. महिलाओं की मदद के लिए हर एक थाने में एक एक महिला पुलिसकर्मी को नोडल अधिकारी भी बनाया गया है, जिनके मोबाइल नंबर पर फोन लगाकार बुजुर्ग व्यक्ति बेहिचक अपनी परेशानी बता सकता है. ये स्टाफ बुजुर्गों का चश्मा ठीक कराने, राशन-सब्जी लाने और यहां तक कि हल्दी-मिर्च जैसे मसाले पिसवाने का काम भी करेंगे.


 


पुलिस विभाग बोला-ई-मेल पर करो काम,कोरोना को कहो बाय-बाय

भोपाल. एमपी (mp) में पुलिस मुख्यालय (phq) हो या फिर पुलिस थाना. इन सभी जगहों पर पुलिस अधिकारी कर्मचारी कोरोना पॉजिटिव (corona positive)  पाए गए हैं. पुलिस विभाग में कोरोना संक्रमण की चेन बन गयी है. इस चेन को ब्रेक करने के लिए पुलिस मुख्यालय ने गाइड लाइन जारी की हैं, जिस पर अमल शुरू हो गया है. विभाग में सारा काम ई-मेल(e-mail) पर हो रहा है. पुलिस अधिकारी कर्मचारी एक दूसरे के सीधे संपर्क में ना आएं इसके लिए तमाम पत्राचार का अब ईमेल के जरिए किया जा रहा है.



भोपाल और इंदौर में खासतौर से पुलिस अपना अधिकांश काम ईमेल के जरिए कर रही है. जिलों के पुलिस हेड क्वार्टर, पुलिस लाइन, एडीजी ऑफिस, डीआईजी ऑफिस, एसपी ऑफिस, एडिशनल एसपी ऑफिस, सीएसपी ऑफिस के तमाम काम ई-मेल के ज़रिए किए जा रहे हैं. इसके अलावा छोटी मोटी जानकारी के लिए फोन पर संपर्क कर उसे हल करने की कोशिश की जा रही है. थाना स्तर पर जो काम पहले ईमेल से होते थे वो भी अब ई-मेल से हो रहे हैं. जो जरूरी काम है उनके लिए जरूर पुलिसकर्मी पत्राचार करते हैं. लेकिन यह काम ना के बराबर हो रहे हैं. ई-मेल पर काम करने से काम में तेजी आई है.

संक्रमण के मामले में पुलिस दूसरे नंबर पर
कोरोना वायरस के आंकड़ों पर नजर डालें तो भोपाल और इंदौर में सबसे ज्यादा संक्रमण स्वास्थ विभाग में फैला है. उसके बाद दूसरे नंबर पर पुलिस विभाग है. थानों में पुलिसकर्मियों के कोरोना पॉजिटिव निकलने के बाद तमाम उपाय जरूर किए जा रहे हैं, लेकिन पुलिस विभाग में संक्रमण फैलने का खतरा अभी भी बना हुआ है.

पीएचक्यू में भी कोरोना का डर
पुलिस मुख्यालय स्थित स्पेशल ब्रांच के एक कांस्टेबल और राज्य स्तरीय महिला हेल्पलाइन की एक महिला कॉन्स्टेबल के कोरोना पॉजिटिव आने के बाद पुलिस मुख्यालय में भी हड़कंप है. यहां के कर्मचारियों के सैंपल लेकर उनकी जांच कराई जा रही है. कुछ दिन पहले ही स्पेशल ब्रांच के एक कांस्टेबल की कोरोना वायरस की रिपोर्ट आई थी. महिला हेल्पलाइन की एक महिला कॉन्स्टेबल के पॉजिटिव आने के बाद हेल्पलाइन ऑफिस में सिर्फ तीन या चार पुलिसकर्मियों की ड्यूटी लगाई गई है. इसके अलावा ईओडब्ल्यू के चीफ राजीव टंडन के ड्राइवर के कोरोना पॉजिटिव निकलने के बाद पूरे ऑफिस को सील कर दिया गया है.इन दफ्तरों में भी अब काम ई-मेल से हो रहा है.


लॉकडाउन में कम हो गए अपराध, लेकिन आगे आने वाली है बड़ी चुनौती!


 







नई दिल्ली. कोरोना वायरस (Coronavirus) के चलते पूरे देश में 40 दिन का लॉकडाउन (Lockdown) चल रहा है. ऐसे में देश के कई हिस्सों से अपराध (Crime) के ग्राफ में कमी की खबर है. मारपीट, चेन स्नैचिंग, वाहन चोरी, लूट, फिरौती, अपहरण, रंगदारी, आत्महत्या सहित कई प्रकार के आपराधिक वारदातों के मामलों पर नजर डालें तो इसके ग्राफ में तेजी से गिरावट दर्ज की गई है. हालांकि, लॉकडाउन के दौरान यूपी-बिहार (UP-Bihar) जैसे कुछ राज्यों में छिटपुट घटनाएं हुई हैं. इसके बावजूद पुलिस विभाग के अधिकारियों का कहना है कि पहले की तुलना में सभी प्रकार के अपराध में 75 प्रतिशत की कमी आई है. हालांकि पुलिस का कहना है कि आने वाले दिनों में बेरोजगारी की वजह से अपराध की चुनौती बढ़ सकती है.



लॉकडाउन के दौरान अपराध में कमी
गौरतलब है कि राष्ट्रीय अपराध शाखा रिकॉर्ड ब्यूरो (National Crime Records Bureau) के मुताबिक, 'देश में हर साल तकरीबन 30 हजार लोगों की हत्या के मामले में एफआईआर दर्ज किए जाते हैं. लेकिन, लाकडॉउन के दौरान इनमें काफी कमी आई है. अनुमान है कि लॉकडाउन के दौरान हत्या के दर्ज मामलों में 50 प्रतिशत से भी ज्यादा की कमी आई है. फिलहाल अभी कोई डाटा नहीं है. आत्महत्या के मामले में भी काफी कमी आई है. ऐसे में कहा जा सकता है कि लॉकडाउन के कारण अपराध के मामले में लोगों को घर में रहने का फायदा मिल रहा है. लॉकडाउन के दौरान अपराध में कमी की मूल वजह पुलिस की चौकसी है. लॉकडाउन के कारण सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कराने में जुटी पुलिस हर जगह तैनात है. इस वजह से भी अपराध कम हो रहे हैं. बिहार के डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग के साथ-साथ पुलिस अपराध और अपराधियों पर अंकुश लगाने में भी जुटी है. इसी वजह से ये सुखद आंकड़े दिख रहे हैं. हालांकि, यह स्थायी समाधान नहीं है. किसी व्यक्ति को घर में रख कर अपराध पर काबू पा नहीं सकते. लॉकडाउन से पहले या बीच में भी अन्य राज्यों से कई लोग आए हैं. लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी लोग आएंगे. ऐसे में आने वाले दिनों में उन लोगों के सामने रोजगार का संकट सामने खड़ा होने वाला है. इस स्थिति में पुलिस को ज्यादा चौकस रहना पड़ेगा.



ग्रामीण इलाकों का क्या है हाल
अगर बात देश की ग्रामीण क्षेत्रों की करें तो वहां भी अपराध में काफी कमी आई है. एक-दो घटनाओं को छोड़ दें तो ग्रामीण इलाकों में शांति है. बिहार के बेगूसराय जिले के खोदावंदपुर प्रखंड के एसएचओ दिनेश कुमार कहते हैं, लॉकडाउन के दौरान पहले की तुलना में अपराध काफी कम हो गए हैं. थाने में अब एफआईआर भी कम दर्ज हो रही है. पहले महीने में 15-20 एफआईआर दर्ज होती थी. वहां पर बीते एक महीने में सिर्फ 5 ही हुई है.'

कुछ जिलों में अपराध बढ़े
हालांकि, लॉकडाउन के दौरान बिहार के कुछ जिलों से अपराध की खबरें भी आ रही हैं. बीते कुछ घंटों में ही बेगूसराय में चार लोगों की हत्या कर दी गई है. जहानाबाद जैसे जिले भी हैं, जहां पर चोरी की घटनाओं में बढ़ोतरी दर्ज की गई है. इसका कारण माना जा रहा है कि लॉकडाउन की वजह से लोग एक जगह फंसे हुए हैं. ऐसे में कई गांवों के घर बंद हैं, जिसका फायदा चोर उठा रहे हैं.